पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३३

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उत्पति प्रकरण।

मन से वृत्ति क्षण में अनेक आकार धरती है। जैसे मृत्तिका कुलाल द्वारा घटादिक अनेक आकार को धरती है तैसे ही निश्चय के अनुसार वृत्ति अनेक आकारों को पाती है। जैसे सूर्य में उलूकादिक अपनी भावना से अन्धकार देखते हैं, कितनों को चन्द्रमा की किरणें भी भावना से अग्निरूपी भासती हैं और कितनों को विष में अमृत की भावना होती है तो उनको विष भी अमृतरूप हो भासता है। इसी प्रकार कटु, अम्ल और लवण भी भावना के अनुसार भासते हैं। जैसे मन में निश्चय होता है तैसे ही भासता है। मनरूपी बाजीगर जैसी रचना चाहता है तैसी ही रच लेता है और मन का रचा जगत् सत्य नहीं और असत्य भी नहीं। प्रत्यक्ष देखने से सत्य है असत्य नहीं, मोर नष्टभाव से असत्य है सत्य नहीं, और सत्य असत्य भी मन से भासता है,वास्तव में कुछ नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे मनोमाहात्म्यवर्णनन्नामा-
ष्टषष्टितमस्सर्गः॥६८॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार प्रथम ब्रह्माजी ने जो मुझसे कहा था वह मैंने अब तुमसे कहा है। प्रथम ब्रह्मा जो अहंशब्द पद में स्थित था उसमें चित्त हुआ अर्थात् अहं मस्मि चेतनता का लक्षण हुआ और उसकी जब दृढ़ता हुई तब मन हुआ, उस मन ने पञ्चतन्मात्रा की कल्पना की वह तेजाकार ब्रह्मा परमेष्ठी कहाता है। हे रामजी! वह ब्रह्माजी मनरूप हैं और मन ही ब्रह्मारूप है। उसका रूप संकल्प हे जैसा संकल्प करता है तैसा ही होता है। उस ब्रह्मा ने एक अविद्याशक्ति कल्पी है अनात्मा में आत्माभिमान करने का नाम अविद्या है। फिर अविद्या की निवृत्ति विद्या कल्पी। इसी प्रकार पहाड़, तृण, जल, समुद्र, स्थावर-जङ्गम सम्पूर्ण जगत् को उत्पन्न किया। इस प्रकार ब्रह्मा हुआ और इस प्रकार जगत् हुआ। तुमने जो कहा कि जगत् कैसे उपजता है और कैसे मिटता है सो सुनो। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं और समुद्र ही में लीन होते हैं तैसे ही सम्पूर्ण जगत् ब्रह्म में उपजता हे भोर ब्रह्मा ही में लीन होता है। हे रामजी! शुद्ध आत्मसत्ता में जो अहं का उल्लेख हुअ हे सो मन है और वही ब्रह्मा है, उसी ने नाना प्रकार का