पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३५

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उत्पति प्रकरण।

कल्पना होती है। जैसे जल ही द्रवता से तरङ्ग और आवृत्तरूप हो भासता है तैसे ही ब्रह्म ही संवेदन से जगवरूप हो भासता है। दष्टा, दर्शन और दृश्य सबब्रह्म से ही उपजे हैं। जैसे सूर्य के तेज से मृगतृष्णा की नदी भासती है तैसे संवेदन से ब्रह्म में द्रष्टा, दर्शन, दृश्य-त्रिपुटी भासती है, पर वास्तव में दृष्टा, दर्शन और दृश्य कोई कल्पना नहीं। जैसे चन्द्रमा और शीतलता में और सूर्य और प्रकाश में कुछ भेद नहीं तैसे ही ब्रह्म औरजगत् में कुछ भेद नहीं। जैसे समुद्र में तरङ्ग उपजते हैं और समुद्र ही में लीन होते हैं तैसे ही जीव ब्रह्म से ही उपजते हैं और ब्रह्म ही में लीन होते हैं। कोई सहस्र जन्मों के अनन्तर प्राप्त होते हैं और कोई थोड़े ही जन्मों में प्राप्त होते हैं। हे रामजी! इस प्रकार जगत् परमात्मा से हुआ है और उस ही की इच्छानुसार सब व्यवहार करते हैं। वही व्यवहार की नाई हो भासते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे सर्वब्रह्मपतिपादनन्नाम
सप्ततितमस्सर्गः॥७०॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! कर्ता और कर्म अभिन्नरूप हैं और इकट्ठे ही ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं जैसे फल और सुगन्ध वृक्ष से इकट्ठे ही उत्पन्न होते हैं तैसे ही कर्ता और कर्म इकट्ठे उत्पन्न हुए हैं। जब जीव सब संकल्प कल्पना को त्यागता है तब निर्मल ब्रह्म होता है। जैसे आकाश में नीलता भासती है तैसे ही आत्मा में जगत् कल्पना फुरती है, पर आत्मा अद्वैत सदा अपने आपमें स्थित है। यह भी अज्ञानी के बोध के लिये कहता हूँ कि जीव ब्रह्म से उपजे हैं। इस प्रकार सात्त्विक, राजस भोर तामस गुणों के भेद स्थित हैं, जो ज्ञानवान हैं उनके प्रति यह कहना भी नहीं बनता कि ब्रह्म से सब उपजे हैं; तो भी दूसरा कुछ नहीं, पर दूसरे को अङ्गीकार करके उपदेश करता हूँ। वास्तव में ब्रह्मसत्ता में कोई कल्पना नहीं; वह तो सदा अपने स्वभाव में स्थित है। जो ज्ञानवान हैं उनको सदा ऐसे ही प्रत्यक्ष भासता है और भवानी दूर दूर चला जाता है उसको सुमेरु और मन्दराचल की नाई आत्मा और जीव का अन्तर भासता है जैसे वसन्त ऋतु में नाना प्रकार से नूतन अंकुर उपजते हैं और उसके प्रभाव से नष्ट होते हैं तैसे ही चित्त के फुरने से जीव राशि उपजते हैं।