पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३३६

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योगवाशिष्ठ।

और चित्त के अफुर हुए नष्ट होते हैं। मन और कर्म में कुछ भेद नहीं; मन और कर्म इकट्ठे ही उत्पन्न होते हैं जैसे वृक्ष से फल और सुगन्ध इकट्ठे उपजते हैं तैसे ही आत्मा से मन और कर्म इकट्ठे ही उपजते हैं और फिर आत्मा में लीन होते हैं। हे रामजी! दैत्य, नाग, मनुष्य, देवता आदिक जो कुछ जीव तुमको भासते हैं वे आत्मा से उपजे हैं और फिर आत्मा ही में लीन होते हैं। इनका उत्पत्ति कारण अज्ञान है, आत्म के भवान से भटकते हैं और जब आत्मज्ञान उपजता है तब संसारभ्रम निवृत्त हो जाता है। रामजी बोले, हे भगवन! जो पदार्थ शास्त्रप्रमाण से सिद्ध है वही सत्य है और शास्त्रप्रमाण वही है जिसमें राग-द्वेष से रहित निर्णय है और अमानित्व अदम्भित्व आदिक गुण प्रतिपादन किये हैं। उस सृष्टि से जो उपदेश किया है सोही प्रमाण है और उसके अनुसारजो जीव विचरते हैं सो उत्तम गति को प्राप्त होते हैं और जोशाम्रप्रमाण से विपरीत वर्तते हैं वह अशुभगति में प्राप्त होते हैं। लोक में भी प्रसिद्ध है कि कर्मों के अनुसार जीव उपजते हैं—जैसा जैसा बीज होता है तैसा ही तैसा उससे अंकुर उपजता है; तैसे ही जैसा कर्म होता है तैसी गति को जीव प्राप्त होता है। कर्ता से कर्म होता है इस कारण यह परस्पर अभिन्न है इनका इकट्ठा होना क्योंकर हो? कर्ता से कर्म होते हैं और कर्म से गति प्राप्त होती है। पर आप कहते हैं कि मन और कर्म ब्रह्म से इकट्ठे ही उत्पन्न हुए हैं इससे तो शास्त्र और लोगों के वचन अप्रमाण होते हैं। हे देवताओं में श्रेष्ठ! इस संशय के दूर करने को तुमही योग्य हो। जैसे सत्य हो तैसे ही कहिये वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह प्रश्न तुमने अच्छा किया है इसका उत्तर मैं तुमको देता हूँ जिसके सुनने से तुमको ज्ञान होगा। हे रामजी! शुद्ध संवितमात्र आत्मतत्त्व में जो संवेदन फुरा है सो ही कर्म का बीज मन हुआ और सोही सबका कर्मरूप है इसलिये उसी बीज से सब फल होते हैं-कर्म और मन में कुछ भेद नहीं। जैसे सुगन्ध और कमल में कुछ भेद नहीं तैसे ही मन और कर्म में कुछ भेद नहीं। मन में संकल्प होता है उससे कर्म अंकुर ज्ञानवान कहते हैं। हे रामजी! पूर्व देह मन ही है और उस मनरूपी शरीर से कर्म होते हैं। वह फल पर्यन्त सिद्ध होता