पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४५

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उत्पत्ति प्रकरण।

में जा पड़े। वहाँ से निकल फिर कदली के वन में जावे और उससे निकलकर फिर आपको मारे। जब कदली वन में जावे तब कुछ शान्तिमान और प्रसन्न हो दौड़े और आपको मारे और कष्टमार होके दूर से दूर जा पड़े। इसी प्रकार वह अपना किया आपही कष्ट भोगे और भटकता फिरे। तब मैंने उसको पकड़ के पूछा कि अरे, तू कौन है; यह क्या करता है और किस निमित्त करता है तेरा नाम क्या है और यहाँ क्यों मिथ्या जगत् में मोह को प्राप्त हुमा है तब उसने मुझसे कहा कि न मैं कुछ हूँ न यह कुछ है और न मैं कुछ करता हूँ। तू तो मेरा शत्रु है; तेरे देखने से मैं नाश होता हूँ। इस प्रकार कहकर वह अपने अगों को देखने और रुदन करने लगा एक क्षण में उसका वपु नाश होने लगा और प्रथम उसके शीश, फिर भुजा, फिर वक्षःस्थल और फिर उदर क्रम से गिर पड़े। जैसे स्वप्न से जागे स्वम का शरीर नष्ट होता है। तब मैं नीति शक्ति को विचार के आगे गया तो और एक पुरुष इसी भाँति का देखा। वह भी इसी प्रकार आपको आपही प्रहार करे, कष्टमान हो और पूर्वोक्त क्रिया करे। जब उसने मुझको देखा तब प्रसन्न होकर हँसा और मैंने उसको रोक के उसी प्रकार पूछा तो उसने भी मेरे देखते-देखते अपने अङ्गों को त्याग दिया और कष्टवान् और हर्षवान भी हुआ। फिर मैं भागे गया, तो एक और पुरुष देखा वह भी इसी प्रकार करे कि अपने हाथों से पापको मार के बड़े अन्धे कुएँ मेंजा पड़े। चिरकालपर्यन्त मैं उसको देखता रहा और जब वह कूप से निकला तब मैंने उस पर प्रसन्न होकर जैसे दूसरे से पूछा था पवा, पर वह मूर्ख मुझको न जान के दूर से त्याग गया, और जो कुछ अपना व्यवहार था उसमें जा लगा। इसके अनन्तर चिरकाल पर्यन्त मैं उस वन में विचरता रहा तो उसी प्रकार मैंने फिर एक पुरुष देखा कि वह आपही पापको नाश करता था। निदान जिसको मैं एवं और जो मेरे पास आवे उसको मैं कष्ट से छुड़ा हूँ और आनन्द को प्राप्त कर और जो मेरे निकट ही न आवे मुझको त्याग जावे तो उस वन में उसका वही हाल हो और वही व्यवहार करे। हे रामजी। वह वन तुमने भी देखा है। परन्तु तुमने वह व्यवहार नहीं किया और