पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३४८

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योगवाशिष्ठ।

और कष्ट पाता है और जैसे कुसवरी कीट आप ही अपने बैठने की गुफा बनाके फँस मरती है तैसे ही मनुष्य अपनी वासना से भाप ही पन्धन में पड़ता है। जैसे मर्कट लकड़ी में हाथ डालके कील को निकालने लगता है और लीला करता है तो उसका हाथ फँस जाता है और कष्ट पाता है तैसे ही भवानी को अपनी चेष्टा ही वन्धन करती है क्योंकि विचार विना करता है। इससे हे रामजी! तुम चित्त से शास्त्र और सन्तों के गणों में चिर पर्यन्त चलो और जो कुछ अर्थशास्त्र में प्रतिपाद्य है उसकी दृढ़ भावना करो। जव अभ्यास से तुम्हारा चित्त स्वस्थ होगा तब तुमको कोई शोक न होगा। हे रामजी! जब चित्त आत्मपद में स्थित होगा तब राग और देष से चलायमान न होगा और जो कुछ देहादिकों से प्रच्छिन्न अहंकार है सो नष्ट होगा। जैसे सूर्य के उदय होने से बरफ गल जाती है तैसे ही तुच्छ अहंकार नष्ट हो जावेगा और सर्व आत्मा ही भासेगा। हे रामजी। जब तक आत्मज्ञान नहीं होता तब तक शाखों के अनुसार आनन्दित आचार में विचरे, शास्त्रों के अर्थ में अभ्यास करे और मन को रागदेषादिक से मौन करे तब पाने योग्य, अजन्मा, शुद्ध और शान्तरूप पद को प्राप्त होता है और सब शोकों से तरके शान्तरूप होता है। हे रामजी! जब आत्मतत्त्व का प्रमाद है तब तक अनेक दुःख प्रवृद्ध होते जाते हैं शान्ति नहीं होती और जब आत्मपद की प्राप्ति होती है तब सब दुःख नष्ट हो जाते हैं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चित्तोपाख्यानसमाप्तिवर्णनन्नाम
पञ्चसप्ततितमस्सर्गः॥७५॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह चित्त परब्रह्म से उपजा है सो आत्मरूप है और आत्मरूप भी नहीं। जैसे समुद्र से तरङ्ग तन्मय और भिन्न होते तेसे ही चित्त है। जो ज्ञानवान हैं उनको चित्त ब्रह्मरूप ही है कुछ भिन्न नहीं। जैसे जिसको जल का ज्ञान है उसको तरङ्ग भी जलरूप भासते हैं और जो ज्ञान से रहित हैं उनको मन संसारभ्रम का कारण है। जैसे जिसको जल का ज्ञान नहीं उसको भिन्न-भिन्न तरङ्गभासते हैं तैसे ही अज्ञानी को भिन्नभिन्न जगत् भासता है और ज्ञानवान् को केवल ब्रह्मसत्ता ही भासती