पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३७१

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उत्पत्ति प्रकरण।

और संसार की ओर से निवृत्त होकर आत्मपद में स्थिर होता है वह श्रेष्ठ महापुरुष कहाता है। जिसका मन संसार की ओर धावता है वह दलदल का कीट है और जिसका मन अचल है और शास्त्र के अर्थरूपी संग और संसार की ओर से निवृत्त होकर एकाग्रभाव में स्थित हुआ है और आत्मपद के ध्यान में लगा हुआ है वह संसार के बन्धन से मुक्त होता है। हे रामजी! जब मन से मनन दूर होता है तब शान्ति प्राप्त होती है—जैसे क्षीरसमुद्र से मन्दराचल निकला तो शान्त हुआ था। जिस पुरुष का मन भोगों की ओर प्रवृत्त होता है वह पुरुष संसाररूपी विष के वृक्ष का बीज होता है। हे रामजी! जिसका चित्त स्वरूप से मूढ़ हुआ है ओर संसार के भोगों में लगा है वह बड़े कष्ट पाता है। जैसे जल के चक्र में आया तृण क्षोभवान होता है तैसे ही यह जीव मनभाव को प्राप्त हुआ श्रम पाता है। इससे तुम इस मन को स्थित करो कि शान्तात्मा हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे चित्तवर्णनन्नाम
पञ्चाशीतितमस्सर्गः॥५॥

वशिष्ठजी बोले हे रामजी! यह चित्तरूपी महाव्याधि है, उसकी निवृत्ति के अर्थ में तुमको एक श्रेष्ठ औषध कहता हूँ वह तुम सुनो कि जिसमें यत्व भी अपना हो, साध्य भी आप ही हो और औषध भी आप हो और सब पुरुषार्थ आप ही से सिद्ध होता है। इस यत्व से चित्तरूपी वैताल को नष्ट करो। हे रामजी! जो कुछ पदार्थ तुमको रस संयुक्त दृष्टि पावें उनको त्याग करो। जब वाञ्छित पदार्थों का त्याग करोगे तब मन को जीत लोगे और अचलपद को प्राप्त होगे। जैसे लोहे से लोहा कटता है तैसे ही मनसे मन को काटो औरयत्न करकेशुभगुणों से चित्तरूपी वैताल को दूर करो। देहादिक अवस्तु में जो वस्तु की भावना है और वस्तु आत्मतत्त्व में जो देहादिक की भावना है उनको त्यागकर आत्मतत्त्व में भावना लगाओं। हे रामजी! जैसे चित्त में पदार्थों की चिन्तना होती है तेसे ही आत्मपद पाने की चिन्तना से सत्यकर्म की शुद्धता लेकर चित्त को यन करके चैतन्यसंवित् की ओर लगाओं और सब वासना को त्याग के एकाग्रता करो तब परमपद की प्राप्ति होगी। हे