पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३८१

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उत्पत्ति प्रकरण

करने से अणुमात्र भी नहीं रहती। जैसे रात्रि को बड़ा अन्धकार भासता है परन्तु जब दीपक लेकर देखिये तब अणुमात्र भी अन्धकार नहीं दीखता वैसे ही विचार करने से विद्या नहीं रहती। जैसे भ्रान्ति से आकाश में नीलता और दूसरा चन्द्रमा भासता है, जैसे स्वम की सृष्टि भासती है, जैसे नाव पर चढ़े से तट के वृक्ष चलते भासते है और जैसे मृगतृष्णा की नदी, सीपी में रूपा और रस्सी में सर्प भ्रम से भासता है वेसे ही अविद्यारूपी जगत् अज्ञानी को सत्य भासता है। हे रामजी! यह जाग्रत् जगत् भी दीर्घकाल का स्वना है। जैसे सूर्य की किरणों में जलबुद्धि मृग के चित्त में भाती है वैसे ही जगत् की सत्यता मूर्ख के चित्त में रहती है। हे रामजी! जिन पुरुषों को पदाथों में रति रही है, उनकी भावना से उनका चित्त खिंचता है और उन पदार्थों को अङ्गीकार करके बड़े कष्ट पाता है। जैसे पक्षी आकाश में उड़ता है पर दाने में उसकी प्रीति होती है उससे चुगने के निमित्त पृथ्वी पर आता है और सुखरूप जानके चुगने लगता है तो जाल में फँसता है और कष्टवान् होता है। जैसे कण की तृष्णा पक्षी को दुःख देती है वैसे ही जीवों को भोगों की तृष्णा दुःख देती है। हे रामजी! ये भोग प्रथम तो अमृत की नाई सुखरूप भासते हैं परन्तु परिणाम में विष की नाई होते हैं, मूर्ख भवानी को ये सुन्दर भासते हैं। जैसे मूर्ख तरङ्ग दीपक को सुखरूप जानके वाञ्छा करता है परन्तु दीपक से स्पर्श करता है तब नाश को प्राप्त होता है वैसे ही भोगों के स्पर्श से ये जीव नाश होते हैं। जैसे संध्याकाल आकाश में लाली भासती है वैसे ही अविद्या से जगत् भासता है। जैसे भ्रम से दूर वस्तु निकट भासती है और निकट वस्तु दूर भासती है और स्वप्न में बहुत काल में थोड़ा और थोड़े काल में बहुत भासता है वैसे ही यह सब जगत्काल अविद्या से भासता है। वह अविद्या आत्मवान से नष्ट होती है इससे यत्न करके मन के प्रवाह को रोको। हे रामजी श! जो कुछ दृश्यमान जगत् है वह सब तुच्छरूप है, बड़ा आश्चर्य है कि मिथ्या भावना करके जगत् अन्ध हुआ है। हे रामजी! अविद्या निराकार और शून्य है, उसने सत्य होकर जगत् को