पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/३९६

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योगवाशिष्ठ।

कि मैं हूँ। रामजी ने पूछा, हे भगवन्! सोने में भूषण होते हैं वे मैं जानता हूँ, परन्तु आत्मा में अहंभाव कैसे होता वह कहिये? वशिष्ठजी बोले, हे रामचन्द्र! अहंकार आदिकों का होना असत्यरूप आगामापायी है। इसका कुछ भिन्न झरूप नहीं है, यह आत्मा का चमत्कार है—वास्तव में द्वैत कुछ नहीं। जैसे समुद्र में अधः ऊर्ध्व जल ही जल है और कुछ नहीं, तैसे ही परमतत्त्व में और विभागकल्पना कोई नहीं—शान्तरूप है। जैसे समुद्र में द्रवता से तरंग आदिक भासते हैं तैसे ही संवेदन से जगत् भ्रम भासते हैं। आत्मा में नाना प्रकार का भ्रम भासता है परन्तु और कुछ नहीं। जैसे सुवर्ण में भूषण, जल में तरंग और वायु में स्पन्द भासते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् भासता है। फुरने से रहित शान्तरूप केवल परमपद है। हे रामजी! जैसे मृत्तिका की सेना में जो हाथी, घोड़ा, पशु होते हैं वे सबमृत्तिकारूप हैं कुछ भिन्न नहीं तैसे ही सब जगत्मात्मरूप है, भ्रम से नानात्व भासता है, वास्तव में आत्मा ही पूर्ण आप में स्थित है जैसे आकाश में आकाश स्थित है तैसे ब्रह्म में ब्रह्मा स्थित है और सत्य में सत्य स्थित है। जैसे दर्पण में प्रतिविम्ब होता है तैसे ही आत्मा में जगत है। जैसे स्वप्न में दूर पदार्थ निकट भासते हैं और निकट दूर भासते हैं सो भ्रममात्र हैं तैसे ही आत्मा में विपर्ययदृष्टि से जगत् भासता है। हे रामजी! असत्य जगत् भ्रम से सवरूप भासता है, वास्तव में असत्यरूप है जैसे दर्पण में नगर का प्रतिबिम्ब, जैसे मृगतृष्णा का जल और आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है तैसे ही यह जगत् आत्मा में भासता है जैसे इन्द्रजाल के योग से आकाश में नगर भासता है तैसे ही यह असत्यरूप जगत् अज्ञान से सत्य भासता है। जब तक आत्मविचाररूपी अग्नि से अविद्यारूपी वेलि को तू न जलावेगा तब तक जगतरूपी बेलि निवृत्त न होगी, बल्कि अनेक प्रकार के सुख दुःख दिखावेगी। जब तू विचार करके मूलसहित इसको जलावेगा तब शान्तपद को प्राप्त होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उत्पत्तिप्रकरणे युक्तोपदेशोनाम
चतुर्णवतितमस्सर्गः॥९४॥