पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४१२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४०६
योगवाशिष्ठ।

कहने से क्या है, सब कर्मों का बीज मन है, मन में छेदे से ही सब जगत् का छेदन होता है। जब मनरूपी बीज नष्ट होता है तब जगतरूपी अंकुर भी नष्ट हो जाता है। सब जगत् मन का रूप इसके आभाव का उपाय करो। मलीन मन से अनेक जन्म के समूह उत्पन्न होते हैं और इसके जीतने से सब लोकों में जय होती है। सब जगत् मन से हुआ है, मन के रहित हुए से देह भी नहीं भासती, जब मन से दृश्य का प्रभाव होता है तब मन भी मृतक हो जाता है, इसके सिवाय कोई उपाय नहीं। हे रामजी! मनरूपी पिशाच का नाश और किसी उपाय से नहीं होता। अनेक कल्प बीत गये हैं और बीत जायँगे तब भी मन का नाश न होगा। इससे जब तक जगत् दृश्यमान है तब तक इसका उपाय करे। जगत् का अत्यन्त प्रभाव चिन्तना और स्वरूप आत्मा का अभ्यास करना यही परम औषध है। इस उपाय से मनरूपी द्रष्टा नष्ट होता है जब तक मन नष्ट नहीं होता तब तक मन के मोह से जन्म मरण होता है और जब ईश्वर परमात्मा की प्रसन्नता होती है तब मन बन्धन से मुक्त होता है। सम्पूर्ण जगत्, मन के फुरने से भासता है जैसे आकाश में शून्यता और गन्धर्वनगर भासते हैं तैसे ही संपूर्ण जगत् मन में भासता है। जैसे पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, गुणी में गुण और धर्मी में धर्म रहते हैं तैसे ही यह सत् अमत्, स्थूल-सूक्ष्म, कारण, कार्यरूपी जगत् मन में रहता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग आकाश में दूसरा चन्द्रमा और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल फुरता है तैसे ही चित्त में जगत् फुरता है। जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है। जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत्। संपूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगवरूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं। जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है। जैसे वृक्ष के नष्ट होने से पत्र, टास, फूल, फल नष्ट हो जाते हैं और इनके नष्ट होने से वृक्ष नष्ट नहीं होता।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे अंकुरवर्णनन्नाम चतुर्थस्सर्गः॥४॥