पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
४४०
योगवाशिष्ठ।

काल के नष्ट हुए स्वाभाविक ही आकाश की नीलता भासती है और वर्षाकाल में मेघ की घटा शोभती है तैसे ही प्रश्नोत्तर भी हैं। जैसा समय हो तेसा ही शोभता है। हे रामजी! मैं तुमको मन का स्वरूप अनेक प्रकार के दृष्टांतों और युक्तियों से कहूँगा और जिस प्रकार यह निवृत्त होता है वह भी क्रम से बहुत प्रकार कहूँगा। मन की शान्ति के उपाय जो वेदों ने निर्णय किये हैं और शास्त्रकारों ने कहे हैं उनके लक्षण तुम सुनो। चञ्चल मन जैसा जैसा भाव अङ्गीकार करता है तैसा ही तैसा रूप होकर भासने लगता है। जैसे पवन जैसी सुगन्ध से मिलता है तैसा ही उसका स्वभाव हो जाता है और जैसे जल जिस रूप से मिलता है तैसा ही रूप हो भासता है तैसे ही मन जिस पदार्थ से मिलता है उसका रूप हो जाता है। मन से रहित जो शरीर से क्रिया करता है उसका फल कुछ नहीं होता और मन से करता है उसका पूर्ण फल होता है। जिस ओर मन जाता है उसी ओर शरीर भी लग जाता है। बुद्धि इन्द्रिय जो मनरूप हैं वे यदि क्षोभ को प्राप्त हों और देह इन्द्रिय स्थिर हों तो भी कार्य होता है पर यदि मन क्षोभित न हो और कर्मेन्द्रिय क्षोभित हों तो कार्य नहीं होता। जैसे धूल शोभायमान हो तो पवन बिना आकाश को उड़ नहीं सकती और पवन शोभायमान हो तो चाहे जैसी धूल स्थित हो उसको उड़ा ले जाती है, तैसे ही देह पड़ा रहता है मन अपने फुरने से स्वप्न में अनेक अवस्था को प्राप्त होता है और जाग्रत में भी जिस आरे मन फुरता है देह को भी वहीं ले जाता है। इससे सब कार्यों का बीज मन ही है और मन से ही सब कर्म होते हैं। मन और कर्म परस्पर अभिन्नरूप हैं। जैसे फूल और सुगन्ध अभिन्नरूप हैं तैसे ही मन और कर्म हैं। जिस कर्म का अभ्यास मन में दृढ़ होता है उसी की शाखा फैलती है, उसी फल को प्राप्त होता है और उसी स्वाद का अनुभव करता है। जिस जिस भाव को चित्त ग्रहण करता है उसी भाव को प्राप्त होता है और उसी को कल्पनारूप मानता है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष ये चार पदार्थ हैं, उनमें जिसकी दृढ़ भावना मन करता है उसी को सिद्ध करता है। कपिलदेव ने सब शास्त्र अपने मन की सत्ता ही से बनाये हैं। उसने निर्णय किया है कि प्रकृति अर्थात् माया के दो