पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/४६६

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योगवाशिष्ठ।

हम दाम, व्याल, कट हैं किसी प्रकार जीते रहें, इस इच्छा से वे दीनभाव को प्राप्त हुए और भय पाने लगे कि इस प्रकार हमारा नाश होगा, इस प्रकार हमारी रक्षा होगी, वही उपाय करें जिससे हम जीते रहें। इस प्रकार आशा की फाँस में बँधे हुए वे दीन भाव को प्राप्त हुए और आपको देहमात्र में आस्था करने लगे कि देहरूपी लता हमारी स्थिर रहे, हम सुखी हों, इस वासनासंयुक्त हो और पूर्व का धैर्य त्याग के वे जानने लगे कि यह हमारे शत्रु नाशकर्त्ता हैं, इनसे किसी प्रकार बचें। उनका धैर्य नष्ट हो गया और जैसे जल बिना कमल की शोभा जाती रहती है तैसे ही इनकी शोभा जाती रही, खाने पीने की वासना फुर आई और संसार की भयानक गति को प्राप्त हुए। तब वे आश्रय लेकर युद्ध करने लगे और ढाल आदिक आगे रक्खे। वे अहंकार से ऐसे भयभीत हुए कि ये हमको मारते हैं, हम इनको मारते हैं। इस चिन्ता में इन सबके हृदय फँस गये और शनैः शनैः युद्ध करने लगे। जब देवता शस्त्र चलावें तब वे बच जावें और भयभीत होकर भागें। अहंकार के उदय होने से उनके मस्तक पर आपदा ने चरण रक्खा और वे महादीन हो गये और ऐसे हो गये कि यदि कोई उनके आगे आ पड़े तो भी उसको न मार सकें। जैसे काष्ठ से रहित अग्नि क्षीर को नहीं भक्षण करती तैसे ही वे निर्बल हो गये। उनके अङ्ग काटे जावें तो वे भाग जावें और जैसे समान शूर युद्ध करते हैं तैसे ही युद्ध करने लगे। हे रामजी! कहाँ तक कहूँ वे मरने से डरने लगे और युद्ध न कर सके। तब देवता वज्र आदिक से उनको प्रहार करने लगे जिनसे वे चूर्ण हो गये और भयभीत होकर भागे। निदान देत्यों की सब सेना भागी और जो जो देश देशान्तर से आये थे वह भी सब भागे, कोई किसी देश को कोई किसी देश को, पहाड़, कन्दरा और जल में चले गये और जहाँ जहाँ स्थान देखा वहाँ वहाँ चले गये। निदान जब दैत्य भयभीत होकर हारे और देवताओं की जीत हुई तो दैत्य भागके पाताल में जा छिपे।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे दामव्यालकटोपाख्यानेऽसुर हननन्नाम एकोनत्रिंशत्तमस्सर्गः॥२९॥