पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५१८

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योगवाशिष्ठ।

उसी में विचरते हैं और राग द्वैष किसी में नहीं करते। बड़ा ऐश्वर्य हो, बड़े गुण हों, लक्ष्मी आदिक बड़ी विभूति हो तो भी ज्ञानवान् अज्ञानीवत् अभिमान नहीं करते। महाशून्य वन में वे खेदवान् नहीं होते और देवता का सुन्दर वन विद्यमान् हो तो उससे हर्षवान् नहीं होते उन्हें न किसी की इच्छा है, न त्याग है, जैसी अवस्था आन प्राप्त हो रागद्वेष से रहित उसी में विचरते हैं। जैसे सूर्य समभाव से विचरता है तैसे ही वे अभिमान से रहित देहरूपी पृथ्वी में विचरते हैं। अब तुम भी विवेक को प्राप्त हो जावो, बोध के बल में स्थित हो और किसी पदार्थ की ओर दृष्टि न करो। निर्वैर, निर्मनदृष्टि सहित विचरो और समतासहित पृथ्वी में स्थित होकर संसार की इच्छा दूर से त्यागकर यथाव्यवहार में बिचरो और परम शान्तरूप रहो। वाल्मीकिजी बोले कि जब इस प्रकार निर्मल वाणी से वशिष्ठजी ने कहा तब रामजी का निर्मल चित्त अमृत से शीतल और पूर्ण हुआ। जैसे पूर्णमासी का चन्द्रमा अमृत से शीतल और पूर्ण होता है तैसे ही रामजी शान्त होकर पूर्ण हुए।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे यथाभूतार्थबोधयोगो नाम षट्चत्वारिंशत्तमस्सर्गः॥४६॥

रामजी बोले, हे भगवन्! आप सर्वधर्म और वेदवेदान्त के पारज्ञ हैं, आपके शुद्ध, उदार, विरक्तरूप, कोमल और उचित वचनों से मैं स्वस्थ हुआ हूँ और उन अमृतरूपी वचनों को पानकर मैं तृप्त नहीं होता। हे भगवन्! आप राजस-सात्त्विक जगत् कहने लगे थे सो कुछ संक्षेप से कहा था कि उसमें अवकाश पाकर आपने ब्रह्माजी की उत्पत्ति कही उसमें मुझको यह सन्देह उत्पन्न हुआ कि कहीं ब्रह्मा की उत्पत्ति कमल से कही है, कहीं आकाश से कही, कहीं अण्डे से कही और कहीं जल से कहीं है सो विचित्ररूप शास्त्र ने कैसे कहा। आप सब संशय के नाशकर्ता हैं कृपा करके शीघ्र मुझको उत्तर दीजिये। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! कई लक्ष ब्रह्मा और अनेक विष्णु और रुद्र हुए हैं और अब भी अनेक ब्रह्माण्ड में अनेक प्रकार के व्यवहार संयुक्त प्रस्तुत हैं। कितने तुल्य होते हैं, कितने बड़े छोटे काल के