पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५१४
योगवाशिष्ठ।

बीती है, कितनी अब हैं और कितनी आगे होगी। जैसे मृत्तिका में घट होता है, वृक्ष में अनेक पत्र होते हैं फिर मिट जाते हैं और जैसे जब तक समुद्र में जल है तब तक तरङ्ग—आवर्त निवृत्त नहीं होते उपजते और लय होते हैं तैसे ही ब्रह्म चिदाकाश है। त्रिलोकीरूप जगत् उपजउपजकर उसी में लय होते हैं। जब तक अपने स्वरूप का प्रमाद है तब तक विकारसंयुक्त जगत् है और बड़े विस्तार से भासता है। जब आत्मा स्वरूप देखोगे तब कोई विकार न भासेगा। जब तक आत्मदृष्टि से नहीं देखा तब तक आभास दशा में उपजते और मिटते हैं पर न सत्य कहे जा सकते हैं और न असत्य कहे जा सकते हैं। वास्तव में ब्रह्म और जगत् में कुछ भेद नहीं, समुद्र में तरङ्ग की नाई अभेद है, अविद्या से भिन्न होकर भासते हैं और विचार किये से निवृत्त हो जाते हैं। चर अचररूप जगत् जो नाना प्रकार की चेष्टा संयुक्त अनन्त सर्वेश्वर आत्मा में फुरते हैं सो उससे भिन्न नहीं जैसे शाखा और फूल, फल वृक्ष से भिन्न नहीं और भिन्न भासते हैं तो भी अभिन्न हैं, तैसे ही आत्मा से जगत् भिन्न भासते हैं तो भी भिन्न नहीं आत्मरूप हैं। हे रामजी! मैंने जो तुमसे चतुर्दशभुवन संयुक्त सृष्टि कही हैं उनमें कोई अल्परूप है और कोई बड़ी है पर सब परमात्मा आकाश में उपजती हैं और वही रूप है। ब्रह्मतत्त्व से कभी प्रथम ब्रह्म आकाश उपजता है और प्रतिष्ठा पाता है फिर उससे ब्रह्मा उपजता है और उसका नाम आकाशज होता है। कभी प्रथम पवन उपजता है और प्रतिष्ठित होता है फिर उससे ब्रह्मा उपजता सो वायुज कहाता है। कभी प्रथम जल उत्पन्न होता है उससे ब्रह्मा उपजकर जलज नाम होता है और कभी प्रथम पृथ्वी उत्पन्न होके विस्तारभाव को प्राप्त होती है और उससे ब्रह्मा उपजता है और पार्थिव उसका नाम होता है एवम् अग्नि से उपजता है तब अग्निज नाम पाता है। हे रामजी! यह पञ्चभूत से जो ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई वह तुमसे कही। जब चार तत्त्व पूर्ण होते हैं और पञ्चम तत्त्व सबसे बढ़ता है तब उससे प्रजापति उपजकर अपने जगत् को रचता है और कभी ब्रह्मतत्त्व से आप ही फर आता है। जैसे पुष्प से सुगन्ध फुर पाती है तैसे ही