पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५२२

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योगवाशिष्ठ।

है और जगत् ब्रह्मतत्त्व से स्फुरणरूप होकर फिर लीन होता है। जैसे तप्त लोहे से चिनगारियाँ उड़ती हैं सो लोहे में ही होती हैं तैसे ही यह सब भाव चिदाकाश से उपजता है और चिदाकाश में ही स्थित है। कभी अव्यक्त रूप होता है और कभी प्रकट होता है। जैसे समुद्र में तरङ्ग और वृक्ष में पत्र होते हैं तैसे ही आत्मा में जगत् है और जैसे नेत्रदूषण से आकाश में दो चन्द्रमा भासते हैं तैसे ही चित्त के फरने से आत्मा में जगत् भासते हैं और उसी में स्थित और लय होते हैं। जैसे चन्द्रमा की किरणें उत्पन्न और स्थित होकर लय होती हैं तैसे ही आत्मा में जगत् है सो स्वरूप से कहीं आरम्भ नहीं हुआ, मन के फुरने से भासता है। हे रामजी! आत्मा सर्वशक्ति है जो शक्ति उससे फुरती है वह उसी का रूप हो भासती है। सब जगत् असत्यरूप है जिसके चित्त में महाप्रलय की नाई असत्य का निश्चय है वह पुरुष फिर संसारी नहीं होता। स्वरूप में लगा रहता है। ऐसे महामती ज्ञानवान् की दृष्टि में सर्वब्रह्म का निश्चय होता है हमको यही निश्चय है कि संसार नहीं, सर्वब्रह्मदत्त ही है और सदा विद्यमान है। अज्ञानी को जगत् सत्य भासता है सो फिर फिर उपजकर नष्ट होता है। स्वरूप विनशने से नष्ट नहीं होता परन्तु अज्ञानी जगत् को असत्य नहीं जानते सदा स्थित जानते हैं उससे नष्ट होते हैं। जगत् के सब पदार्थविनाशरूप हैं परन्तु दृश्य से जगत् असत्य नहीं भासता। जिन पदार्थों की सत्यता दृढ़ हो गई है वे नाशवान हैं—कुछ न रहेगा। पदार्थ सत्य भासता है, कोई असत्य भासता है, इस जगत् में ऐसा कौन पदार्थ है जो कलना से विस्ताररूप ब्रह्म में न बने। यह जगत् महाप्रलय में नष्ट हो जाता है और फिर उत्पन्न होता है। जन्म और मरण होता है और सुख, दुःख, दिशा, आकाश, मेघ, पृथ्वी, पर्वत सब फिर फिर उपज आते हैं। जैसे सूर्य की प्रभा उदय अस्त को प्राप्त होती रहती है तैसे ही सृष्टि उदय अस्त होती भासती है। देवता और दैत्य लोकान्तर क्रम होते हैं और स्वर्ग, मोक्ष, इन्द्र, चन्द्रमा, नारायण, देव, पर्वत, सूर्य, वरुण, अग्नि आदिक लोकपाल फिर फिर होते हैं। सुमेरु आदिक स्थान फुर पाते हैं और तमरूप हस्ति को भेदने को सूर्यरूप केसरीसिंह उपज