पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६२

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योगवाशिष्ठ।

रूपी तरङ्ग से व्याकुल जो संसार समुद्र है वह मायाजाल से पूर्ण है और राग-द्वेष रूपी मच्छों से संयुक्त है, उसको त्याग के मैं वीतज्वर कब होऊँगा। उस उपशम सिद्धपद को मैं कब पाऊँगा जो बुद्धिमानों ने मूढ़ता को त्याग के पाया है। मैं कब निर्दोष और समदर्शी होऊँगा और अज्ञानरूपी ताप मेरा कब नाश होगा जिससे सम्पूर्ण अङ्ग मेरे तपते हैं। सब धातु सोभरूप हो गई हैं और उनसे बड़ा दीर्घज्वर हुआ है इससे कब मेरा चित्त शान्तवान होगा जैसे वायु विना दीपक स्थिर होता है। कन मैं भ्रम त्याग के प्रकाशवान हूँगा और कब मैं लीला करके इन्द्रियों के दुःखों को तर जाऊँगा। दुर्गन्धरूप देह से मैं कव न्यारा होऊँगा और 'अहं' 'वं आदिक मिथ्याभ्रम का नाश मैं कब देखूगा। जिस पद के आगे इन्द्रादिकों का सुख ऐश्वर्य मन्दरादिक वृक्षों की सुगन्ध और नाना प्रकार के भोग तृणवत् भासते हैं वह आत्ममुख हमको कब प्राप्त होगा। वीतराग मुनीश्वर ने जो हमसे ज्ञान की निर्मल दृष्टि कही है उसको पाके मन विश्रामवान होता है। संसार तो दुःखरूप है मन तू किस पदार्थ को पाके विश्रामवान हुमा है। माता, पिता, पुत्रादिक जो सम्बंधी हैं उनका पात्र मैं नहीं हूँ इनका पात्र भोगी होता है। बुद्धि तू मेरी बहन है, तू मेरा ही अर्थ भ्राता की नाई पूर्ण कर कि तुम हम दोनों दुःख से मुक्त हों। मुनीश्वर के वचनों को विचार के हमारी आपदा नाश होगी, हम भी परमपद को पास होंगे और तुझको भी शान्ति होगी। हे मेरी बुद्धि तू ज्यों का त्यों स्मरण कर कि वशिष्ठजी ने क्या कहा है। प्रथम तो वेराग्य कहा, फिर मोक्षव्यवहार कहा है, फिर उत्पत्ति प्रकरण कहा है कि संसार की उत्पत्ति इस क्रम से हुई है और फिर स्थिति प्रकरण कहा कि ईश्वर से जगत् की स्थिति है और नाना प्रकार के दृष्टान्तों से उसे निरूपण किया है। निदान जितने प्रकरण कहे हैं वेज्ञान विज्ञानसंयुक्त हैं। हे बुद्धे! जिस प्रकार वशिष्ठजी ने कहा है तैसे तू स्मरण कर और अनेकवार विचार कर। बुद्धि में निश्चयन होतोवह क्रिया भी निष्फल है। जैसे शरत्काल का मेघ बड़ा धन भी दृष्टि पाता है परन्तु वर्षा से रहित निष्फल होता है तैसे ही धारणा से रहित विचार किया हुआ निष्फल