पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५६४

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योगवाशिष्ठ।

किरणों ने झुककर झरोखों से प्रवेश किया, कमल खिल आये, पुष्पों से स्थान पूर्ण हो गये और उनकी महासुगन्ध फेली, झरोखों में लियाँ चञ्चलता त्यागकर मौन हो बैठी और चमरकरनेवाली मौन होकर शीश पर चमर करने लगी और सब वशिष्ठजी की महासुन्दर कोमल मधुर-वाणी को स्मरणकर आपस में आश्चर्यवान होने लगे। तब आकाश से राजऋषि, सिद्ध, विद्याधर और मुनि आये और वशिष्ठजी को प्रणाम किया पर गम्भीरता से मुख से न बोले और यथायोग्य भासन पर बैठ गये। पुष्पों की सुगन्धयुक्त वायु चली और अगर चन्दनादि की सभा में बड़ी सुगन्ध फैल गई। भँवरे शब्द करते फिरते थे और कमलों को देखकर प्रसन्न होते थे। रत्न मणि भूषण जो राजा और राजपुत्रों ने पहिने थे उन पर सूर्य की किरणें पड़ने से बड़ा प्रकाश होता था।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे सभास्थानवर्णनन्नामतृतीयस्सर्ग॥३॥

वाल्मीकिजी बोले कि उस समय दशरथजी ने वशिष्ठजी से कहा, हे भगवन्! कल के श्रम से आप आश्रित हैं और आपका शरीर गरमी से अति कृश सा हो गया है इस निमित्त विश्राम कीजिये। हे मुनीश्वर! आपजो आनन्दित वचन कहते हैं वे प्रकटरूप हैं और आपके उपदेशरूपी अमृत की वर्षा से हम आनन्दवान हुए हैं। हमारे हृदय का तम दूर होकर शीतल चित्त हुआ है—जैसे चन्द्रमा की किरणों से तम और तपन दोनों निवृत्त होते हैं तैसे ही आपके वचनों से हम अज्ञानरूपी तम और तपन से रहित हुए हैं। आपके वचन अमृतवत् अपूर्वरस का आनन्ददेते हैं और ज्यों ज्यों ग्रहण करिये त्यों-त्यों विशेष रस आनन्द आता है। ये वचन शोकरूपी तप्त को दूर करनेवाले और अमृत की वर्षारूप हैं। आत्मारूपी रत्न को दिखानेवाले परमार्थरूपी दीपक है, सन्तजनरूपी वृक्ष की बेलि हैं और दुरिच्छा और दुष्ट आचरण के नाश करनेवाले हैं। जैसे तम को दर करने और शीतलता करने को शान्तरूप चन्द्रमा है तैसे ही सन्तजनरूपी चन्द्रमा को किरणरूपी वचनों से अज्ञानरूपी तप्त का नाश करते हैं। हे मुनीश्वर! तृष्णा और लोभादिक विकार आपकी वाणी से ऐसे नष्ट हो गये हैं जैसे शरत्काल का पवन मेघ को नष्ट करता है और आपके