पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८५

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उपशम प्रकरण।

सिंह को गीदड़ हरिण भी जीत लेते हैं। इससे जो कुछ प्राप्त होता दृष्टि माता है वह अपने प्रयत्न से होता है। अपनी बोधरूपी चिन्तामणि हृदय में स्थित है उससे विवेकरूपी फल मिलता है—जैसे कल्पलता से जो माँगिये वह पाते हैं तैसे ही सब फल बोध से पाते हैं। जैसे जाननेवाला केवट समुद्र से पार करता है मजान नहीं उतार सकता तैसे ही सम्यक् बोध संसारसमुद्र से पार करता है और असम्यक् बोध जड़ता में डालता है। जो अल्प भी बुद्धि सत्यमार्ग की और होती है तो बड़े संकट दूर करती है—जैसे बोटी नाव भी नदी से उतार देती है। हे रामजी! जो पुरुष बोधज्ञान है उसको संसार के दुःख नहीं वेध सकते-जैसे लोहे आदिक का कवच पहने हो तो उसको बाण बेध नहीं सकते। बुद्धि से मनुष्य सर्वात्मपद को प्राप्त होता है, जिस पद के पाने से हर्ष, विषाद, संपदा, आपदा कोई नहीं रहती। अहंकाररूपी मेघ जब आत्मरूपी सूर्य के आगे पाता है तो मायारूपी मलीनता से आत्मरूपी सूर्य नहीं भासता। बोधरूपी वायु से जब यह दूर होतवआत्मारूपी सूर्य ज्यों का त्यो भासता है—जैसे किसान प्रथम हल आदिक से पृथ्वी को शुद्ध करता, फिर बीज बोता है और जब जल सींचता है और नाश करनेवाले पदार्थों से रक्षा करता है तब फल पाता है, तैसे ही जब प्रार्जवादि गुणों से बुद्धि निर्मल होती है तब शास्त्र का उपदेशरूपी बीज मिलता है और अभ्यास वैराग करके करता है उससे परमपद की प्राप्ति होती है वह अतुलपद है, उसके समान और कोई नहीं।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्राज्ञामहिमावर्णननाम दादशस्सर्गः॥१२॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार जनक की नाई अपने आपसे आपको विचार करो और पीछेजो विदितवेद पुरुषों ने किया है उसी प्रकार तुम भी करके निर्वाण हो जामो। जो बुद्धिमान पुरुष हैं और जिनका यह अन्त का जन्म है वे राजस-सात्त्विकी पुरुष भाप ही परमपद को प्राप्त होते हैं। जब तक अपने आपसे आत्मदेव प्रसन्न न हो तब तक इन्द्रियरूपी शत्रुओं के जीतने का यत्न करो और जब आत्मदेव जो सर्ववत् परमात्मा