पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/५८८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
५८२
योगवाशिष्ठ।

उसको वैराग्य से उलटाके खैंचना—जैसे पुल से जल के वेग का निवारण होता है तैसे ही जगत से रोककर मन को आत्मपद में लगाने से आत्मभाव प्रकाशता है। इससे हृदय से सब वासना का त्याग कये और बाहर से सब क्रिया में रहो। वेग चलो, श्वास लो और सर्वदा, सब प्रकार चेष्टा करो, पर सर्वदा सब प्रकार की वासना त्याग करो। संसाररूपी समुद्र में वासनारूपी जल है और चिन्तारूपी सिवार है, उस जल में तृष्णावान् रूपी मच्छ फंसे हैं। यह विचार जो तुमसे कहा है उस विचाररूपी शिला से बुद्धि को तीक्ष्ण करो और इस जाल को छेदो तव संसार से मुक्त होगे। संसाररूपी वृक्ष का मूल बीज मन है। ये वचन जो कहे हैं—उनको हृदय में धरकर धैर्यवान हो तव आधि व्याधिदुःखों से मुक्त होगे। मन से मन को वेदो, जो बीती है उसका स्मरण न करो और भविष्यत् की चिन्ता न करो, क्योंकि वह असत्यरूप है और वर्तमान को भी असत्य जानके उसमें विचरो। जब मन से संसार का विस्मरण होता है तब मन में फिर न फुरेगा। मन में असत्यभाव जानके चलो, बैठो, श्वास लो, निश्वास करो, उछलो, सोवो, सब चेष्टा करो परन्तु भीतर सब असत्यरूप जानो तब खेद न होगा। अहं 'मम' रूपी मल का त्याग करो प्राप्ति में विचरो अथवा राजा प्राप्त हो उसमें विचरो परन्तु भीतर से इसमें आस्था न हो। जैसे आकाश का सब पदार्थों में अन्वय है परन्तु किसी से स्पर्श नहीं करता, तैसे ही बाहर कार्य करो परन्तु मन से किसी में बन्धायमान न हो तुम चेतनरूप अजन्मा महेश्वर पुरुष हो, तुम से भिन्न कुछ नहीं और सबमें व्याप रहे हो। जिस पुरुष को सदा यही निश्चय रहता है उसको संसार के पदार्थ चलायमान नहीं कर सकते और जिनको संसार में आसक्त भावना है और स्वरूप भूले हैं उनको संसार के पदार्थों से विकार उपजता है और हर्ष, शोक और भय खींचते हैं, उससे वे बाँधे हुए हैं। जो ज्ञानवान् पुरुष राग देष से रहित हैं उनको लोहा, बट्टा, (टेला) पाषाण और सुवर्ण सब एक समान है। संसार वासना के ही त्यागने का नाम मुक्ति है। हे रामजी! जिस पुरुष को स्वरूप में स्थिति हुई है और सुख दुःख में समता हे