पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६०८
योगवाशिष्ठ।

होता तैसे ही ज्ञानवान् राग द्वेष से रञ्जित नहीं होता। अब इच्छा और भय कलना से रहित स्वच्छ आत्मसत्ता सदा प्रफुल्लितरूप है और पुत्र, कलत्र, बान्धवों के स्नेह से रहित है और उसका हृदयकमल सर्व इच्छा और अहं मम से रहित अपने स्वरूप में सन्तुष्टवान् होता है। इससे मिथ्या देहादिकों की भावना को त्यागकर अपने नित्य, शुद्ध, शान्त और परमानन्दस्वरूप में तू भी स्थित हो। तू तो परब्रह्म और निर्मूलरूप है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणेपावनबोधोनामर्विशतितमस्सर्गः॥ २० ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार पुण्यक ने पावन से बोध उपदेश किया तब पावन बोधवान् हुआ। तब दोनों ज्ञान के पारगामी और निरिच्छत आनंदित पुरुष होकर चिरकाल पर्यन्त विचरते रहे और फिर दोनों विदेहमुक्त निर्वाण पद को प्राप्त हुए। जैसे तेल से रहित दीपक निर्वाण हो जाता है तैसे ही प्रारब्ध कर्म के क्षीण हुए दोनों विदेहमुक्त हुए। हे रामजी! इसी प्रकार तू भी जान। जैसे वे मित्र, बान्धव, धनादिक के स्नेह से रहित होकर विचरे तैसे ही तुम भी स्नेह से रहित होकर बिचरो और जैसे उन्होंने विचार किया था तैसे ही तुम भी करो। इस मिथ्यारूप संसार में किसकी इच्छा करें और किसका त्याग करें, ऐसे विचारकर अनन्त इच्छा और तृष्णा का त्याग करना, यही औषध है, तृष्णारूपी इच्छा का पालना औषध नहीं, क्योंकि पालने से पूर्ण कदाचित्त नहीं होती। जो कुछ जगत् है वह चित्त से उत्पन्न हुआ है और चित्त के नष्ट हुए संसार-दुःख नष्ट हो जाता है। जैसे काष्ठ के पाने से अग्नि बढ़ता जाता है और काष्ठ से रहित शान्त हो जाता है तैसे ही चित्त की चिन्तना से जगत् विस्तार पाता है और चिन्तना से रहित शान्त हो जाता है। हे रामजी! ध्येय वासनावान् त्यागीरूप रथ पर आरूढ़ होकर रहो, करुणा, दया और उदारतासंयुक्त होकर लोगों में विचरो और इष्ट अनिष्ट में राग द्वेष से रहित हो। यह ब्रह्मस्थिति मैंने तुमसे कही। निष्काम, निर्दोष और स्वस्थरूप को पाकर फिर मोह को नहीं प्राप्त होता। परम आकाश ही इसका हृदयमात्र विवेक है और बुद्धि इसकी सी है जिसके निकट विवेक और बुद्धि है वे परमव्यवहार करते भी संकट