पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६१६

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योगवाशिष्ठ।

पुरुषों को मलीन करती है। चित्तरूपी वृक्ष के बड़े बड़े टास दिशा विदिशा में फैल रहे हैं सो आशारूप है, जब विवेकरूपी कुल्हाड़े से उनको काटेंगे तब अचित् पद की प्राप्ति होगी और तभी एक स्थानरूपी चित्त रहेगा अविवेक और अधैर्य तृष्णा शाखासंयुक्त हैं उनकी अनेक शाखा फिर होंगी इसलिये आत्मधैर्य को धरो कि चित्त की वृद्धि न हो। उत्तम धैर्यं करके जब चित्त नष्ट हो जावेगा तब अविनाशी पद प्राप्त होगा। हे रामजी! उत्तम हृदय क्षेत्र में जब चित्त की स्थिति होती है तब आशारूपी दृश्य नहीं उपजने देती केवल ब्रह्मरूप शेष रहता है। तब तुम्हारा चित्त वृत्ति से रहित अचित्तरूप होगा तब मोक्षरूप विस्तृत पद प्राप्त होगा। चित्तरूपी उलूक पक्षी की तृष्णारूपी स्त्री है। ऐसा पक्षी जहाँ विचरता है तहाँ अमङ्गल फैलता है। जहाँ उलूक पक्षी विचरते हैं वहाँ उजाड़ होता है विवेकादि जिससे रहित हो गये हैं ऐसे चित्त की वृत्ति से तुम रहित हो रहो। ऐसे होकर विचरोगे तब अचिन्त्य पद को प्राप्त होगे। जैसी जैसी वृत्ति फुरती है तैसा ही तैसा रूप जीव हो जाता है, इस कारण चित्त उपशम के निमित्त तुम वही वृत्ति धरो जिससे आत्म-पद की प्राप्ति हो। हे महात्मा पुरुष! जिसको संसार के पदार्थों की इच्छा और ईषणा उपशम हुई है और जो भाव अभाव से मुक्त हुआ है वह उत्तम पद पाता है और जिसका चित्त आशारूपी फाँसी से बाँधा है वह मुक्त कैसे हो? आशा संयुक्त कदाचित् मुक्त नहीं होता और सदा बन्धायमान रहता है।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे तृष्णाचिकित्सोपदेशोनामैक-
विंशतितमस्सर्गः ॥ २१ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! मैंने जो तुमको उपदेश किया है उसको बुद्धि से विचारो। रामजी बोले, हे भगवन्! सर्वधर्मों के वेत्ता। तुम्हारे प्रसाद से जो कुछ जानने योग्य था वह मैंने जाना, पाने योग्य पद पाया और निर्मल पद में विश्राम किया, भ्रमरूपी मेघ से रहित शरत्काल के आकाशवत् मेरा चित्त निर्मल हुआ है, मोहरूपी अहंकार नष्ट हो गया है, अमृत से हृदय पूर्णमासी के चन्द्रवत् शीतल हुआ है और संशय-