पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६७

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उपशम प्रकरण।

ग्रहण करने योग्य है; यह त्यागने योग्य है; इस प्रकार मूर्खों के चित्त की अवस्था डोलायमान होती है पण्डितों की नहीं होती। मैं भिन्न हूँ और वह भिन्न है यह अज्ञान से अन्धवासना है, शुद्ध बुद्धि के विद्य- मान नहीं रहती जैसे सूर्य की किरणों से रात्रि दूर रहती है तैसे ही यह वासना दूर रहती है। यह त्याग और यह ग्रहण कीजिये सो मिथ्या चित्त का भ्रम है और उन्मत्त अज्ञानी के हृदय में होता है, ज्ञानवान् के हृदय में यह भ्रम उदय नहीं होता। हे कमलनयन! सर्व तू ही है और विस्तृत आत्मरूप है। हेयोपादेय और द्वैतभाव कल्पना कहाँ है? यह संपूर्ण जगत् विज्ञानरूप सत्ता का आभास है। सत्य असत्यरूप जगत् में ग्रहण त्याग किसका कीजिये। केवल अपने स्वभाव से द्रष्टा और दृश्य का विचार किया है उसमें मैं प्रथम क्षीण विश्रान्तवान् हुआ था अब भाव अभाव-जगत् के पदार्थों से मुक्त हुआ हूँ और हेयोपादेय से रहित आत्मतत्त्व मुझको भासता है और समभाव को प्राप्त हुआ हूँ। अब मुझको संशय कुछ नहीं रहा, जो कुछ करता हूँ वह आत्मा से करता हूँ। त्रिलोकी में तबतक तू पूजने योग्य है जबतक प्रलय नहीं हुआ इससे मैं आदरसंयुक्त पूजन करता हूँ तुम ग्रहण करो। वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार दैत्यराज ने कहकर क्षीरसमुद्र में शयन करनेवाले विष्णु को श्रेष्ठ सुमेरु की मणियों से पूजा और फिर शंख, चक्र, गदा, पद्म आदिक शस्त्रों का पूजन करके गरुड़ की पूजा की और फिर देवता और विद्याधरों की पूजा की। इस प्रकार भगवान् के आत्मस्वरूप का हृदय में ध्यान रखके परिवार संयुक्त पूजन किया, तब लक्ष्मीपति बोले, हे दैत्येश्वर! तू उठकर सिंहासन पर बैठ, मैं तुझको अपने हाथ से अभिषेक करता हूँ और पाञ्चजन्य शंख बजाता हूँ उसका शब्द सुनकर सब सिद्ध और देवता आकर तेरा मङ्गल करेंगे। इतना कहकर वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! इस प्रकार कहकर विष्णुजी ने दैत्य को इस भाँति सिंहासन पर बैठाया जैसे सुमेरु पर मेघ आ बैठे और फिर क्षीरसमुद्र और गङ्गादि तीर्थों का जल मँगाके पाञ्चजन्य शंख बजाया जिसके शब्द से सब सिद्धगण, ऋषि, ब्राह्मण, विद्याधर, देवता और मुनियों के समूह आये और सबने