पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६६६

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योगवाशिष्ठ।

विश्रान्तिमान् निवासनिक पुरुषों की वासना भी जगत् में स्थित दृष्टि आती है और अर्द्ध सुषुप्त की नाई चेष्टा करते हैं पर वे सब जगत् में आत्मा देखते हैं। वे आत्मविषयिणी बुद्धि से सुख में हर्षवान् नहीं होते और दुख में भी शोकवान् नहीं होते एकरस आत्मपद में स्थित रहते हैं। नित्य प्रबुद्ध पुरुष कार्यभाव को ग्रहण करता है पर जैसे इच्छा से रहित दर्पण प्रतिबिम्ब को ग्रहण करता है तैसे ही भली बुरी भावना उसको स्पर्श नहीं करती। वह आत्मपद में जाग्रत है और संसार की ओर से सोया है और सषुप्तिरूप है। जैसे पालने में सोया हुआ बालक स्वाभा- विक अङ्ग हिलाता है तैसे ही उसका हृदय सषुप्तिरूप है और व्यवहार करता है। हे पुत्र! तू अजात परमपद को प्राप्त हुआ है। तू इस देह से ब्रह्मा का एक दिन भोगेगा और इस राजलक्ष्मी को भोगकर फिर अच्युत परमपद को प्राप्त होगा।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादबोधो नाम चत्वारिंशत्तमस्स-
र्ग:॥ ४० ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! अद्भुत जिसका दर्शन है ऐसे जगतरूपी रत्नों के डब्बे विष्णुदेव ने जब शीतलवाणी से इस प्रकार कहा तब प्रह्लाद ने नेत्रों को खोलकर धैर्य सहित कोमल वचन और मननभाव को ग्रहण करके देखा और चर्मदृष्टि से बाहर देखा कि बड़ा कल्याण हुआ है। परमेश्वर अपना आपस्वरूप अनन्त आत्मा है और सर्वसंकल्प से रहित आकाशवत् निर्मल है। अब मुझको शोक है, न मोह है और न वैराग से देहत्याग की चिन्ता है। जो कुछ कार्य भयदायक होता है सो एक आत्मा के विद्यामान रहते शोक कहाँ, नाश कहाँ, देहरूपी संसार कहाँ, संसार की स्थिति कहाँ, भय कहाँ और अभयता कहाँ, मैं यथाइच्छित अपने आपमें स्थित हूँ। इस प्रकार मैं निर्मल विस्तृतरूप केवल पावन में स्थित हूँ और संसारबन्धन को त्यागकर विरक्त हुआ हूँ। जो अप्रबुद्ध मूढ़ हैं उनकी बुद्धि में हर्ष शोक चिन्ता विकार सदा रहता है। वे देह के भाव में सुख मानते हैं और अभाव में दुःखी होते हैं। यह चिन्तारूपी विष की पंक्ति मूढ़ों को लिपायमान होती है। यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, यह