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वैराग्य प्रकरण।

विष्णु, रुद्र और काल जो सबको भक्षण करता है, काल की स्त्री, सब का आधार आकाश और जितना जगत् है यह सब नष्ट हो जावेंगे तो हमारी कौन गिनती है। हम किसकी आस्था करें और किसका आश्रय करें? यह सब जगत् भ्रममात्र है; अज्ञानी की इसमें आस्था होती है और हमारी नहीं, क्योंकि जगत् भ्रम से उत्पन्न हुआ है। मैं इतना जानता हूँ कि संसार में जीव को इतना दुःखी अहङ्कार ने किया है। हे मुनीश्वर। यह जीव अपने परमशत्रु अहङ्कार से भटकता फिरता है। जैसे रस्सी से बँधे हुए पतङ्ग कभी ऊर्ध्व और कभी नीचे जाते हैं, स्थिर कभी नहीं रहते वैसे ही जीव अहङ्कार से कभी ऊर्ध्व और कभी अधो जाता है स्थिर कभी नहीं होता। जैसे अश्व जुते हुए रथ के ऊपर बैठकर सूर्य आकाश मार्ग में फिरता है वैसे ही जीव भ्रमता है, स्थिर कदाचित् नहीं होता। हे मुनीश्वर! यह जीव परमार्थ सत्य स्वरूप से भूला हुआ भटकता है; अज्ञान से संसार में आस्था करता है और भोग को सुखरूप जानकर उसमें तृष्णा करता है। पर जिसको सुखरूप जानता है वह रोग समान है और विष से पूर्ण सर्प जीव का नाश करने वाला है जिसको सत्य जानता है वह सब असत्य है सबकाल के मुख में ग्रमे हुए हैं। हे मुनीश्वर! विचारके बिना जीव अपना नाशा आप ही करता है, क्योंकि इसका कल्याण करने वाला बोध है। जब सत्य विचार बोध के शरण जाय तो कल्याण हो। जितने पदार्थ हैं वह स्थिर नहीं रहते। इनको सत्य जानना दुःख के निमित्त है। हे मुनीश्वर! जब तृष्णा आती है तब आनन्द और धैर्य का नष्ट कर देती है। जैसे वायु मेघ का नाश कर डालता है वैसे ही तृष्णा ज्ञान का नाश कर डालती है। इससे मुझे वही उपाय कहिए जिससे जगत् का भ्रम मिटजावे और भविनाशी पद की प्राप्ति हो। इस भ्रमरूप जगत् की आस्था मैं नहीं देखता। इससे जैसी इच्छा हो वैसा करें, परन्तु जो सुख दुःख इसको होने हैं वह अवश्य होंगे कभी न मिटेंगे। चाहे पहाड़ की कन्दरा में बैठें, चाहे कोट में परन्तु जो होने को है वह अवश्य होगा। इस निमित्त यत्न करना मूर्खता है।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे वैराग्य प्रकरणे कालविलास वर्णन
न्नामे कविंशतितमस्सर्गः॥२१॥