पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६७२

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योगवाशिष्ठ।

से वश नहीं किया उस अविवेकी चित्त को राग द्वेष ठहरने नहीं देते। जिसके हाथों में शंख, चक्र, गदा, पद्म है उस ईश्वर की जो अर्चना करते हैं व कष्ट तपस्या से पूजन करते हैं, उनका चित्त समय पाकर निर्मलभाव, अभ्यास और वैराग्य को प्राप्त होता है। नित्य अभ्यास से भी चित्त निर्मल होता है तो आत्मफल को प्राप्त होता है चित्त निर्मल बिना आत्मफल को प्राप्त नहीं होता और जब चित्त निर्मल हुआ तब वैराग्य और अभ्यासवान होकर आत्मफल का भोगी होता है-जैसे बोया बीज समय पाकर फल देता है तैसे ही क्रम करके फल होता है। हे रामजी! विष्णुपूजा का क्रम भी निमित्तमात्र है। आत्मतत्त्व के अभ्यासरूपी शाखा से फल प्राप्त होता है और जो सबसे उत्तम परम संपदा का अर्थ है वह अपने मन के निग्रह से सिद्ध होता है। अपने मन का निग्रह करना ही बीज है जो चेतनरूपी क्षत्र से प्रफुल्लित होकर फलदायक होता है। संपूर्ण पृथ्वी की निधि और शिलामात्र बड़ी-बड़ी मणि की होवें तो भी मन के निग्रह के समान नहीं। जैसा दुःख का नाशकर्ता और बड़ा पदार्थ मन का निग्रह है वैसा और कोई नहीं। तब तक जीव अनेक जन्म पाता है तबतक अनउपशम मनरूपी मत्स्य संसारसमुद्र में भ्रमाता है। हे रामजी! ब्रह्मा, विष्णु और महेश को चिरकालपर्यन्त पूजता रहे पर यदि मन उपशम और विचार संयुक्त न हुआ तो देवता कृपालु हों तो भी उसको संसारसमुद्र से नहीं तार सकते। यह जो भास्वर आकार जगत् के पदार्थ भासते हैं उनको इन्द्रियों से त्याग कीजिये तब जन्म के प्रभाव का कारण जानिये। विषयों की चिन्तना से रहित होकर, निगमय और सब दुःखों से रहित आत्मसुख में स्थित हो और जो सत्तामात्र तत्त्व और सबका साररूप है उसका स्वाद लेकर मनरूपी के पार हो।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे प्रह्लादविश्रान्तिवर्णन-
न्नाम त्रिचत्वारिंशत्तमस्सर्गः ॥ ४३ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! यह संसारनाम्नी माया अनन्त है और किसी प्रकार इसका अन्त नहीं आता। जब चित्त वश हो तब यह निवृत्त हो जाती है, अन्यथा नहीं निवृत्त होती। जितना जगत् देखने और