पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/६९७

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उपशम प्रकरण।

जैसे लोहे और ढीले (मिट्टी) का संयोग नहीं होता। यह बड़ा आश्चर्य है कि सबका अहं करनेवाला कौन था? यह मिथ्या अहंकार अज्ञान से दुःखदायक था। जैसे अज्ञान से बालक को वैताल भासकर दुःख देता है तैसे ही अविचार से दुःख होता है। जैसे पहाड़ पर बादल स्थित होता है तो पहाड़ बादल नहीं होता और बादल पहाड़ नहीं होता, तैसे ही आत्मा अनात्मा नहीं होता और अनात्मा आत्मा नहीं होत। जैसे सूर्य की किरणों में जल और रस्सी में सर्प भासता है तैसे ही आत्मा में अहंकार भासता है और विचार करने से अहंकार कुछ नहीं निकलता। जहाँ अहंकार होता है वहाँ दुःख भी आ स्थित होते हैं जैसे जहाँ मेघ होता है वहाँ बिजली भी होती है, तैसे ही जहाँ अहंकार होता है तहाँ शरीररूपी वृक्ष की मञ्जरी बढ़ती है। जैसे गरुड़ के विद्यमान होते सर्प नहीं रहता तैसे ही आत्मविचार के विद्यमान होते अहंकार नहीं रहता। इससे चित्तादिक सब झूठे हैं और अज्ञान से भासते हैं तो इनसे रखा हुआ जगत् कैसे सत्य हो। यह जगत् अकारण है इससे मिथ्याभ्रम से भासता है। जैसे भ्रांति से आकाश में दूसरा चन्द्रमा भासता है, नौका में बैठे हुए को तट के वृक्ष चलते भासते हैं और गन्धर्वनगर भासता है। जब चित्त नष्ट होता है तब सब भ्रम का अभाव हो जाता है। देह में जो अभिमान है सो ही दुःख का कारण है। जबतक विचार नहीं उपजता तब तक भासता है-जैसे बरफ की पुतली तब तक होती है जब तक सूर्य का तेज नहीं लगा और जब सूर्य का तेज लगता है तब बरफ की पुतली गल जाती है। जैसे बालक को घूमने से पृथ्वी भ्रमती भासती है तैसे ही चित्त के भ्रम से यह जगत् भासता है और विचार के उपजे से अहंकार गल जाता है। हे मन! तेरे साथ मिलने से बड़ा दुःख होता है। तुझसे रहित मैंने आपको देखा है, अब तू सब इन्द्रियों सहित निर्वाण हो। आत्मविचार से आत्म अग्नि में स्थित हो कि सब मल तेरा जलकर शुद्धता को प्राप्त हो। इस देह के साथ तेरा मिलाप दुःख के निमित्त है। मन और देह के भीतर से आपस में शत्रुभाव है पर बाहर से स्नेह भासता है। भीतर दोनों परस्पर नाश करने की इच्छा करते हैं। जो दुःख होता है