पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०७

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उपशम प्रकरण।

है परन्तु हर्ष शोक के वश नहीं होता वह समाहित चित्त कहाता है। जो पुरुष सबको आत्मरूप देखता है, चित्त को नहीं चितवता, भविष्यत् की इच्छा नहीं करता और वर्तमान में राग द्वेष से रहित होकर विचरता है वह समाहितचित्त कहाता है। हे रामजी! जो पुरुष जगत् की पूर्वापर गति को देखकर हँसता है, समपद में स्थित होता है और किसी में ममता नहीं करता वह समाहितचित्त कहाता है। जो पुरुष अहंममता से और जगत् की विभाग कलना से रहित है और जिससे चेतन अचेतन-भाव नहीं फुरता वह पुरुष सत्य हैं और आकाश की नाई स्वच्छ निर्मल है और राग, द्वेष, क्रोध विकारों से काष्ठ लोष्ट समान हो रहता है। वह सब भूतों को अपने समान देखता है और अन्यों के द्रव्य को देखकर ईर्षा नहीं करता। वह स्वभाव ही से उसे नहीं चाहता द्वन्द के भय से नहीं त्यागता। ऐसे जो देखता है और अहंकार से रहित होता है वह न जगत् के सत्यभाव को देखता है, न असत्य भाव को देखता है, न ज्ञात को देखता है, न अज्ञान को देखता है, न जड़ को देखता है, न चेतन को देखता है, वह तो केवल अद्वैततत्त्व देखता है। वह महाशान्तपद में स्थित है, वह उठ खड़ा हो अथवा बैठा रहे, उदय हो अथवा अस्त हो, बड़े भोगों में रहे अथवा वन में जा बैठे, अथवा मद्यपान से उन्मत्त हो और नृत्य करे और गयादिक तीर्थों में निवास करे अथवा कन्दरा में निवास करे, शरीर को अगर चन्दन का लेपन करे अथवा कीचड़ के साथ लपेटे, देह अभी गिर पड़े अथवा कल्पपर्यन्त रहे, उस पुरुष को कदाचित् कुछ कलङ्क नहीं लगता। जैसे सुवर्ण को कीचड़ के मिलाप से दोष नहीं लगता तैसे ही ज्ञानवान् को कर्तृत्व का दोष नहीं लगता। हे रामजी! इस संवित को अहन्ता ही कलङ्क है। महापुरुष अहंकार से रहित है इससे उनको कर्तृत्व स्पर्श नहीं करता। जैसे सीपी को रूप का आभास नहीं स्पर्श करता तैसेही ज्ञानवान् को क्रिया स्पर्श नहीं करती। हे रामजी! अहन्ता ही से जीव दीन होता है। जब अहन्ता फुरती है तब अनेक प्रकार के दुःख सुख देखता है और परम्परा जन्मों को देखता है और भय पाता है। जैसे किसी को रस्सी में सर्प भासता है और भय पाता है पर जब भली प्रकार दीपक के प्रकाश से