पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७०६

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योगवाशिष्ठ।

उपज और संशयरूपी वायु से उसकी बुद्धिरूपी पक्षिणी डोलायमान हुई कि बड़ा अनर्थ है कि मैं जीवों को कष्ट देता हूँ। इससे मैं इनको धन देऊँ और कष्ट न देऊँ। जैसे तिलों को तेली पेरता है तैसे ही मैं पापियों को कष्ट देता हूँ। दुष्टों को कष्ट दिये बिना राज्य नहीं चलता-जैसे जल बिना नदी का प्रवाह नहीं चलता और यदि दण्ड देता हूँ तो वे दुःख पावते हैं। मैं क्या करूँ दोनों बातों में कष्ट है। हे रामजी! ऐसे विचार में राजा बहुत भ्रमता रहा। निदान एक दिन उसके गृह में माण्डव मुनि आये-जैसे इन्द्र के घर में नारद आवें-तब राजा ने भली प्रकार उनका पूजन किया और संदेहवान् होकर पूछा, हे भगवन्! तुम सर्व धर्मगत हो, तुम्हारे आने से मैं बड़े आनन्द को प्राप्त हुआ हूँ जैसे वसन्त ऋतु से पृथ्वी प्रफुल्लित होती है तैसे ही मैं प्रफुल्लित हुआ हूँ मैं भी अब आपको पुण्यवान् जानता हूँ कि मैं भी पुण्यवानों में प्रसिद्ध होऊँगा, क्योंकि तुम मेरे गृह में आये हो। जैसे सूर्य के उदय हुय प्रकाश हो आता है तैसे ही मैं तुम्हारे दर्शन से प्रसन्न भया हूँ। हे भगवन्! मुझको एक संशय उसके निवारण करने को आपही योग्य हो। जैसे सूर्य के उदय हुए अन्धकार नष्ट हो जाता है तैसे ही तुमसे मेरा संशय निवृत्त होगा। जो कोई महापुरुषों का संग करता है उसका संशय अवश्य निवृत्त होता है। संशय ही सब दुखों का कारण है इससे मेरे संशय को तुम दूर करो। मुझे यह संशय है कि यदि कोई दुष्ट कर्म करता है तो उसको मैं दण्ड देता हूँ और जब उसको दुःखी देखता हूँ तो दया उपजती है। जैसे सिंह नख से हाथी को खैंचता है तैसे यह संशय मुझको खैंचता है। इससे वही उपाय कहो जिससे मुझको समता प्राप्त हो। जैसे सूर्य की किरणें सब ठौर में सम होती हैं तैसे ही इष्ट-अनिष्ट में मैं सम होऊँ। कृपा करके मुझसे वही उपाय कहिये। माण्डव बोले, हे राजन्! यह तो बहुत सुगम है और अपने अधीन है, आपही से सिद्ध होता है और अपने ही गृह में है। हे राजन्! सब उपाधि मन में उठती है वह मन तुच्छ है और विचार किये से निवृत्त हो जाता है। जैसे उष्णता से बरफ जलमय हो जाता है तैसे ही विचार किये से सब मननभाव लीन हो जाता