पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७१६

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योगवाशिष्ठ।

क्या? यह क्लेश कोई नहीं और न कोई दुःख है, न सुख है, सर्व ब्रह्म है और दूसरी वस्तु कुछ नहीं। मैं राग किसका करूँ और द्वेष किसका हो? मैं मिथ्या मूढ़ता को प्राप्त होकर दुःखी होता था, अब कल्याण हुआ कि मैं अअमूढ़ होकर अपने आप स्वभाव में स्थित हुआ हूँ। ऐसे आत्मा के साक्षात्कार बिना में दुःखी था। इसके देखे से अब किसका शोक करूँ और मोह को कैसे प्राप्त होऊँ? अब मैं क्या देखूँ, क्या करूँ और कहाँ स्थित होऊँ? यह सब जगत् आत्मा के प्रकाश से है और सब आत्मरूप है। हे अतत्त्वरूप! अर्थात् जिसमें तत्त्वों की उपाधि कुछ नहीं, तेरी दृष्टि निष्कलड़्क है। मैं अब सम्यक ज्ञानवान हुआ हूँ। मेरा तुझको नमस्कार है। मैं अनन्त आत्मा, अनुभवरूप, निष्कलङ्क, सब इच्छा भ्रमरहित, सुषुसि की नाई शान्तरूप, अचैत्य, चिन्मात्र सदा अपने आपमें स्थित हूँ।

इति श्री योगवाशिष्ठे उपशमप्रकणे सुरघवृत्तान्तवर्णन-
न्नाम चतुष्पञ्चाशत्तमस्सर्गः ॥ ५४ ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! क्रान्त जो सुवर्णरूप देश है उसका राजा परमानन्द को प्राप्त हुआ। वह इस प्रकार विचार अभ्यास से ब्रह्मरूप हुआ जैसे गाधि का पुत्र विश्वामित्र तपस्या करके उसी शरीर से क्षत्रिय से ब्राह्मण हुआ था तैसे ही राजा सुरघ अभ्यास करके ब्रह्मरूप ब्रह्मबोध हुआ और जैसे सूर्य इष्ट अनिष्ट में सम है और विगतज्वर होकर दिनों को व्यतीत करता है तैसे ही राग द्वेष से रहित वह राज्य का कार्य करता रहा। जैसे जल ऊँची नीची ठौर में जाता है और अपना जलभाव नहीं त्यागता, सम रहता है, तैसे ही राजा हर्षकोष से रहित होकर राज्यकार्य करता रहा और स्वभाव को न त्यागा। आत्मविचार को धार सुषुप्ति की नाई उसकी वृत्ति हो गई और संसार भाव का फुरना रुक गया। जैसे वायु से रहित दीपक प्रकाशता है तैसे ही वह शुद्ध प्रकाश धारता भया। हे रामजी! वह दया करता भी दृष्टि आवे परन्तु उसकी दृष्टि में कुछ दया नहीं और दया से रहित भी औरों को दीखे परन्तु उसकी दृष्टि में निर्दयता नहीं। न कुछ सुख, न दुःख, न अर्थ, न अनर्थ सब पदार्थों में एक समभाव आत्मा देखे और हृदय से पूर्णमासी के चन्द्रमा शीतल