पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२९

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उपशम प्रकरण।

और अब आत्मपद पाया है। क्या अब तुम्हारी बुद्धि शोक से रहित होकर विद्या तुमको फली है और तुम अब कुशलरूप हुए हो? भास बोले, हे साधो! अब हमको कुशल हुई जो तुम्हारा दर्शन हुआ। जगत् में कुशल कहाँ है, इस संसार में स्थित हुए हमको सुख और कुशल कहाँ है? हे साधो! जबतक ज्ञेय परमात्मतत्त्व को नहीं पाया, जबतक चित्तभूमिका क्षीण नहीं हुई और जबतक संसारसमुद्र को नहीं तरे तबतक कुशल कहाँ है? जबतक चित्त से दुःख निवृत्त नहीं होता तबतक चित्त की भूमिका नष्ट नहीं होती। जबतक संसारसमुद्र से पार नहीं होते तबतक हमको सुख कहाँ है? जबतक चित्तरूपी क्षेत्र में आशारूपी कण्टकों की बेलि बढ़ती जाती है और आत्मविचाररूपी हँसिये से नहीं काटी जाती तबतक हम को कुशल कहाँ, जबतक आत्मज्ञान उदय नहीं हुआ तबतक दमको कुशल कहाँ है? हे साधो! संसाररूपी विसूचिका रोग आत्मज्ञानरूपी औषध बिना दूर नहीं होता। सब जीव नित्य वही क्रिया कहते हैं जिसमे दुःख प्राप्त हो इससे सुख को नहीं पाते। देहरूपी वृक्ष में बाल अवस्थारूपी पत्र हैं और यौवन और वृद्ध अवस्थारूपी फल हैं सो मृत्यु के मुख में जा पड़ता है, उपजता है और फिर नष्ट होता है। यह सुख जो लवकार है और दुःख जिसका दीर्घ से दीर्घ है। ऐसे जो शुभाशुभ आरम्भ हैं उनमें इनको दिन-रात्रि व्यतीत होते हैं। हे साधो! वित्तरूपी हाथी वैरागरूपी जंजीर बिना तृष्णारूपी हथिनी के पीछे दूर से दूर चला जाता है। जैसे चील्ह पक्षी मांस की ओर चला जाता है तैसे ही चित्त विषयों की ओर धावता है और आत्मारूपी चिन्तामणि की ओर नहीं जाता। अहंकाररूपी चील्ह देहादिकरूपी मांस की ओर धावता है और सुखरूपी कमल अपानरूपी धूलि से धूसर हो जाता है और भोग- रूपी वरफ से नष्ट हो जाता है। हे साधो! यह देहरूपी कूप में गिरा है, जिसमें भोगरूपी सर्प है,‌ आशारूपी कण्टक है और तृष्णारूपी जल है उसमें दुःख पाता है। हे साधो! नाना प्रकार के रङ्गरञ्जनारूपी भोग हैं और जिसमें तृष्णारूपी चञ्चलता है ऐसे चैत्यदृश्य में मग्न है। चित्तरूपी वा कालरूपी वायु से हिलती है चित्तरूपी समुद्र में चिन्तारूपी भँवर