पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७२८

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योगवाशिष्ठ।

जिसकी महासुन्दररूप रचना स्वर्ग की सी है। वहाँ अत्रिनाम एक ऋषीश्वर साधुओं के श्रम दूर करने वाला रहता था। उसके आश्रम के पास दो तपस्वी आ रहने लगे-जैसे आकाश में बृहस्पति और शुक्र आ रहे। उन दोनों के गृह में दो महासुन्दर पुत्र जैसे कमल उत्पन्न हो तैसे ही उत्पन्न हुए उनमें एक का नाम भास और दूसरे का नाम विलास हुआ। दोनों क्रम से बड़े हुए और जैसे अंकुर के दोनों पत्र बढ़ते हैं तैसे ही वे बढ़ने लगे। परस्पर उनकी प्रीति बहुत बढ़ी और इकट्ठे रहने लगे। जैसे तिल और तेल, और फूल और सुगन्ध इकट्ठे रहते हैं और जैसे स्त्री पुरुष की प्रीति आपस में होती है, तैसे ही उनकी प्रीति बढ़ी। वे देखने मात्र तो दो मूर्ति दृष्ट आते थे परन्तु मानो एक ही थे। उनकी स्नान आदिक क्रिया और मानसी क्रिया भी एक समान थी और वे महासुन्दर प्रकाशवान् थे जैसे चन्द्रमा और सूर्य हों। जब कुछ काल व्यतीत हुआ तब उनके माता पिता शरीर त्यागकर स्वर्ग को गये और उनके वियोग से वे दोनों शोकवान् हुए और जैसे कमल की कान्ति जल बिना जाती रहे तैसे ही उनके मुख की कान्ति कुम्हिला गई। फिर उन्होंने उनके मरने की सब क्रिया की और उनके गुण सुमिरण करके विलाप करें और महाशोकवन् हों क्योंकि महापुरुष भी लोकमर्यादा नहीं लँघते। हे रामजी! इस प्रकार शोक कर उनका शरीर कृश हो गया।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे भासविलासवृत्तान्त-
वर्णनन्नाम षष्टितमस्सर्गः ॥ ६० ॥

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! जैसे उजाड़ वन का वृक्ष जल बिना सूख जाता है तैसे ही उनका शरीर सूख गया। तब वे दोनों शोकातुर होकर विचरने लगे। जैसे समूह से बिछुड़ा हरिण शोकवान् होता है तैसे ही वे दुःखी हुए क्योंकि उनको निर्मल ज्ञान प्राप्त न था। जब कुछ काल व्यतीत हुआ तब वे फिर आ मिले। विलास ने कहा, हे भाई! हृदय को आनन्द देनेवाला अमृत का समुद्र जीवनरूप जो वृक्ष है उस का फल सुख है सो तुम इतने काल क्या सुख से रहे? तुम्हारा हमारा वियोग हो गया था तब तुम कैसी क्रिया करते रहे? क्या तुमने अपना कुछ चित्त निर्मल किया है