पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७४६

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७३८ योगवाशि। सो एक के नाश हुए से दूसरे का नाश नहीं होता तैसे ही देह और इन्द्रियों का संयोग है पर इनके नाश हुए भात्मा का नाश नहीं होता जैसे स्थाणु में वैताल भासता है और भयवान होता है तेसे ही देह में महंभाव से राग, देष, सुख, दुःख पाता है। जैसे पक काष्ठ की अनेक पुतली होती है सो काष्ठ से इतर कुछ नहीं है तैसे ही जो कुछ शरीर है वह पञ्चभूतों का है, पञ्चभूतों से भिन्न कुछ वस्तु नहीं। जब यह पञ्च- भूतों का शरीर पञ्चभूतों में लीन होता है तब उसको मृतक हुमा कहते है। यह पाश्चर्य है, जो प्रत्यक्ष पञ्चभूतों का शरीर है उसमें प्रात्म- भावना श्वान करते हैं और फिर हर्ष भोर शोक को प्राप्त होता है इसी से मुर्ख है। हे रामजी ! न कोई पुरुष है और न कोई बी है पर इनके निमिच मूढ रुदन करते हैं। जैसे मृत्तिका के हाथी घोड़ा भादिक खिलौने विचित्र रचना होती है और उसकी प्राप्ति में भवानी बालक तुष्टवान मौर खेदवान होता है तैसे ही भवानी पाञ्चभौतिक रचना देखकर उसकी प्राप्ति में राग देष करता है वानवान् को सब भूत पदार्थभ्रांतिमात्र भासते हैं। जैसे माटी के खिलौनों को आपस में मिलने से राग देष कुछ नहीं होता तैसे ही बुद्धि, इन्द्रियाँ, मन से प्रात्मा की जो असंगता है इससे रागदेष नहीं रहता। जैसे पाषाण की पुतलियाँ मिलती हैं तो उनको स्नेह बन्धन कुछ नहीं होता तैसे ही देह, इन्द्रियाँ, प्राण और आत्मा का आपस में सङ्ग बुद्धि से रहित है । इससे तुम स्नेह से रहित हो रहो, शोक काहे को करते हो । जैसे तृण और जल के तरङ्ग का संयोग होता है तो तृण इधर उधर जाता है और जल को कुछ हर्ष शोक नहीं होता तैसे ही देह और आत्मा का योग है इनके मिलाप और बिछुरे का वास्तव में दुःख सुख कुछ नहीं होता । आत्मा और अनात्मा, देह इन्द्रियाँ, प्राण, मन, बुद्धि मादिक विलक्षण हैं और परस्पर इनके क्षय और उदय में हर्ष शोक कुछ नहीं परन्तु चित्त के उदय से अनात्मधर्म मात्मा में प्रतिविम्बित भासता है। तुम तत्त्वबोध करके चित्त को त्याग करके अपने स्वरूप में स्थित हो-जैसे जल तरङ्गभाव को त्यागकर अपने स्थिर स्वभाव को प्राप्त होता है। जब तुम अपने प्रक्षोभभाव को प्राप्त