पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७६२

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७५४ योगवाशिष्ठ। है। ध्यान और योग भी सूक्ष्म है यत्न के बल से उनसे सत् को पाता है और जो असत् है वह उदय होकर सत् भासता है। जैसे बाजीगर की बाजी और शश के सींग भासि भाते हैं तैसे ही प्रात्मा में असर्दूप जो जगत् है सो भवान से दृढ़ हो भासता है परन्तु कल्प के अन्त में यह भी नष्ट हो जाता है। हे रामजी ! यह जो सूर्य, चन्द्रमा, इन्दादिक हैं उनके नाम भिन्न-भिन्न रहेंगे और बड़े सुमेरु मादिक पर्वत, समुद्र और भाव पदार्थ जो उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ भासते हैं वे सब नाश हो जायेंगे, क्योंकि सब मायामात्र है, कोई न रहेगा। ऐसे विचार करके इनके भाव अभाव में हर्ष शोक मत करो भौर समताभाव को प्राप्त हो । हे रामजी! जो असत् है वह सत् की नाई भासता है और जो सब है वह असत् की नाई भासता है इससे यथार्थ विचारकर सतरूप भात्मपद में स्थित हो रहो और असवरूप जगत् की प्रास्था त्याग के समताभाव को ग्रहण करो। इस लोक में जो अविवेक मार्ग में विचरता है वह मुक्त नहीं होता । इस प्रकार कोटि जीव संसारसमुद्र में डूबते हैं और जो विवेक में प्रवर्तते हैं वे मुक्त होते हैं । हे रामजी! जिसका मन भय हुमा है उनको मुक्तरूप जानो और जिसका मन क्षय नहीं हुभा वह बन्धन में है । इससे जिसको सर्व दुःख से मुक्ति की इच्छा हो सो आत्मा का विचार करे उसी से सब दुःख नष्ट हो जायेंगे। हे रामजी । दुःखों का मूल चित्त है और जब तक चित्त है तब तक दुःख है, जब चित्त नष्ट हो जाता है तब दुःख सब मिट जाते हैं । हे रामजी । जब आत्मज्ञान होता है तब चित्त का अभाव हो जाता है, दुःख सब मिट जाता है और राग, इच्छा सब भय मिटकर केवल शान्तरूप होता है । जनक प्रादि जो जीवन्मुक्त हुए हैं सो निराग और निस्सन्देह होकर महाबोधवान व्यवहार भी करते रहे परन्तु सदा शीतल चित्त रहे।इससे तुम भी विवेक से चित्त को लीन करो। हेरामजी। मुक्त भी दो प्रकार की है-एक जीवन्मुक्ति है और दूसरी विदेहमुक्ति। जो पुरुष सब पदार्थों में प्रसंसक्त है और जिसका मन शान्त हुमाहे वह मुक्ति कहाता है और जिस पुरुष का बान से सब पदार्थों में स्नेह नष्ट हुमा है और व्यवहार करता दृष्ट पाता है तो भी शीतलचित्त है वह जीवन्मुक्त