पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७६

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योगवाशिष्ठ। नमस्कार है । मैं सम सर्वगत, सूक्ष्म और अपने स्वभाव में स्थित हूँ और पृथ्वी, पर्वत, भाकाश आदिक जगत् मैं नहीं और में ही सर्व पदार्थ होकर भासता हूँ। ऐसा मैं सर्वात्मा हूँ।भर मैं सर्वभाव को प्राप्त हुमाहूँ और मननभाव मुझको दूर हुमा है। मेरे प्रकाश से विश्व भासता है, मैं अजर, अमर और अनन्त हूँ और गुणातीत प्रदेत हूँ। मनन जिससे दूर हुआ है ऐसा जो मैं सुन्दररूप हूँ जिससे विश्व प्रकट है और स्वरूप से भवि. नाशी हूँ उस अनन्त, अजर, अमर, गुणातीत ईश्वररूप को नमस्कार है। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे चित्तउपशम- नाम पञ्चसप्ततितमस्सर्गः॥७५ ॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! इस प्रकार विचारकर तत्त्ववेत्ता पात्मा को सम्यक् जानते हैं। तुम भी मात्मविवार का पाश्रय करके प्रात्मपद के पाश्रय हो हो । यह जगत् सब भात्मरूप है, ऐसे जानकर चित्त से जगत् की सत्यता को त्याग करो। जब ऐसे विचार करे तब चित्त कहाँ है ? बड़ा आश्चर्य है कि जो चित्त स्वरूप दिखाई देता था सो प्रविदित मायामात्र भस्तरूप था। जैसे माकाश के फूल कहने मात्र हैं तैसे ही चित्त कहनेमात्र हे और भविचार से दिखाई देता है। विचारवान को चित्त असत् भासता है, क्योंकि भविचार से सिद्ध है। जैसे नौका पर बेठे बालक को तट के वृक्ष चलते भासते हैं पर बुद्धिमान को चलने में सद्भाव नहीं होता तैसे ही मूर्ख को चित्त सत्ता भासती है और विचारवान का चित्त नष्ट हो जाता है। जब मूर्खतारूप भ्रम शान्त होता है तब चित्त कहीं नहीं पाया जाता। जैसे बालक चक्र पर चढ़ा हुमा फिरता है तो पर्वत श्रादिक पदार्थ उसको भ्रमते भासते हैं और जब चक्र ठहर जाता है तब पर्वत मादि पदार्थ अचल भासते हैं तैसे ही चित्त के ठहरने से दैत कुछ नहीं भासता। भागे मुझको देत भासता था इससे चित्त के फुरने से नाना प्रकार की तृष्णा (इच्छा) उठती थी भव चित्त के नष्ट हुए इन पदार्थों की भावना नष्ट हुई है और सब संशय और शोक नष्ट हो गये हैं। मन मैं विगतज्वर स्थित हूँ, जैसे में स्थित हूँ तैसे हूँ, एषणा कोई नहीं । जब चित्त का चैत्यभाव नष्ट हुमा तबाच्छा भादिक गुण कहाँ रहे । जैसे