पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७७

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उपशम प्रकरण ७६६ प्रकाश के नष्ट हुए वर्णज्ञान नहीं रहता तेसे ही चित्त के नाश हुएइच्छा मादिक नहीं रहते। अब चित्त नष्ट हुमा, तृष्णा नष्ट हो गई और मोह का पिंजड़ा टूट पड़ा भाव में निरहंकार बोधवान हूँ, सब जगत् शान्तरूप मात्मा हे मोर नानात्व कुछ नहीं। मैं निराभास, मादि-अन्त से रहित मानन्दपद को प्राप्त हुआ हूँ। मेरा सर्वगत सूक्ष्म भात्मतत्त्व अपना पाप है और उसमें मैं स्थित है। इन विचारों से भव क्या प्रयोजन है ? जबतक भापको मैं देह जानता था तबतक ये विचार मूर्ख अवस्था में थे भाव में भमित, निराकार भोर केवल परमानन्द सचिदानन्द को प्राप्त हुमा हूँ। भागे में चित्तरूपी वैताल को भाप ही जगाता था और भाप ही दुःखी होता था, अब विचाररूपी मन्त्र से मैंने इसको नष्ट किया है भोर निर्णय से अपने स्वरूप को प्राप्त हुमा हूँ। मैं शान्तात्मा अपने पापमें स्थित हूँ। हे रामजी ! जिसको यह निश्चय प्राप्त हुमा है वह निईन्द रागदेष से रहित होकर स्थित होता है और प्रकृत कर्म करता है पर मानमद से रहित मानन्द करके पूर्ण होता है जैसे शरत्काल की रात्रि को पूर्णमासी का चन्द्रमा अमृत से पूर्ण होता है तेसे ही प्रकृत भाचार कार्यकर्ता ज्ञानवान् का हृदय शान्तपूर्ण भात्मा है। इति श्रीयोगवाशिष्ठे उपशमप्रकरणे चित्तशान्तिप्रतिपादन- माम षट्सप्ततितमस्सर्गः॥ ७६॥ वशिष्ठजी बोले, हे रामजी ! यह विचार वेदविदों ने कहा है पूर्व मुझसे ब्रह्माजी ने यही विचार विन्ध्याचल पर्वत पर कहा था। इसी विचारसे में परमपद में स्थित हुमा हूँ। इसी दृष्टि का माश्रय करके भात्मविचार होकर तमरूपी संसारसमुद्र से तर जामो। हे रामजी ! इस पर एक मोर परम दृष्टि सुनो वह दृष्टि परमपद के प्राप्त करनेवाली है। जिस प्रकार वीतब मुनीश्वर विचार करके निशा स्थित हुमा हे सो सुनो। महातेज- वान वीतव मुनीश्वर ने संसार के आधिव्याधि रोग से वैराग्य किया मोर नंगा होके पर्वतों की कन्दरामों में विचरने लगा। जैसे सूर्य सुमेरु पर्वत के चौफेर फिरता हे तैसे ही वह विचरने खगा और संसार की क्रिया को दुसरूप विचारतामा किपड़े भ्रम देनेवाली है। ऐसे जानकर वह उदेग