पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७७८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

योगवाशिष्ठ। वान हुमा और निर्विकल्प समाधि की इच्छा कर अपने व्यवहार को त्याग दिया और अपनी गौरकुटी त्यागकर और केले के पत्रों की बनाकर बैठा। जैसे भंवरा कमल को त्यागकर नीलकमल पर जा बैठता है तेसे ही गौर- कुटी को त्यागकर वह श्यामकुटी में जा बैठा। नीचे उसने कुश विवाया उस पर मृगछाला विछाया और उस पर पद्मासन कर बैठा और जैसे मेघ जल त्यागकर शुद्धमौन स्थित होता हे तैसे ही और क्रिया को त्याग- कर शान्ति के निमित्त मौन स्थित हुमा। हाथों को तले कर मुख ऊपर कर और प्रीवा को सूधा करके स्थित हुमा और इन्द्रियों की वृत्ति को रोक फिर मन की वृत्ति को भी रोका । जैसे सुमेरु की कन्दरा में सूर्य का प्रकाश बाहर से मिट जाता है तेसे ही इन्द्रियों की रोकी वृत्ति बाहर से भी मिट जाती है और हृदय से भी विषयों की चिन्तना का उसने त्याग किया। इस प्रकार वह क्रम करके स्थित हुमा । जब मन निकल जावे तब वह कहे कि बढ़ा पाश्चर्य है मन महाचञ्चल है कि जो मैं स्थित करता हूँ तो फिर निकल जाता है। जैसे सूखा पत्ता तरङ्ग में पड़ा नहीं ठहरता तैसे ही मन एक क्षण भी नहीं ठहरता सर्वदा इन्द्रियों के विषयों की ओर धावता है। जैसे गेंद को ज्यों-ज्यों ताड़ना करते हैं त्यों- त्यों उछलता है तैसे ही इस मूर्ख मन को जिस-जिस ओर से बचता हूँ उसी ओर फिर धावता है भोर उन्मत्त हाथी की नाई झूमना है, जो गन्ध की ओर से बैंचता हूँ तो रस की ओर निकल जाता है और जो रस की भोर से खेचता हूँ तो गन्ध की ओर धावता है स्थित कदाचित् नहीं होता। जैसे वानर कभी किसी डाल पर कभी किसी गल परजाबैठता है इसी प्रकार मूर्ख मन भी शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध की भोर धावता है स्थिर नहीं होता। इसके ग्रहण करने के पञ्चस्थान हैं जिन मार्गों से विषयों को प्रहण करता है सो पञ्चबान इन्द्रियाँ हैं। अरे मूर्ख, मन! तू किस निमित्त विषयों की मोर धावता है यह तो भाप जड़ और असत्रूप भ्रान्तिमात्र है तू इनसे शान्ति को कैसे पावेगा ? इनमें चपलता से इच्छा करना अनर्यका कारण है। ज्यों-ज्यों इनके अर्थों को प्रहण करेगात्यों-त्यों दु:ख के समूह को प्राप्त होगा। ये विषय जड़ मोर असवरूप हैं भोर तू भी जड़ है जैसे