पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/७९७

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उपशम प्रकरण। ७८६ में स्थित होती है, जैसे पूर्णमासीका चन्द्रमा अपने भापमें स्थित होता है, जैसे मन्दराचल के निकलने से धीरसमुद्र स्थित होता है और मथने से रहित मन्दराचल स्थित होता है जैसे कुम्हार का चक्र फिरता फिरता ठहर जाता है जैसे सूर्य के अस्त हुए जीवों की व्यवहार किया ठहर जाती है, जैसे मेघ से रहित शरत्काल का भाकाश निर्मल होता है और प्रकाश तन से रहित होता है, तेसे ही फुरने से रहित उसका मन शान्ति को प्राप्त हुआ। प्रणव का ध्यान करके फिर उस वृत्ति के मन्त को प्राप्त हुश्रा और फिर मन्त्र को भी त्याग-जैसे महापुरुष क्रोध को त्यागते हैं तैसे ही वृत्ति को त्यागा। फिर तेज का प्रकाश उदय हुमा उसको भी निमेष में त्यागा। मागे न तेज है, न तम है उसमें भभाववृत्ति रहती है उसको भी निमेष में त्यागा, तब जैसे नूतन बालक की जन्म से पदार्थवान से रहित अवस्था होती है तेसे ही अवस्था प्राप्त हुई। तब जो सत्तामात्र प्रात्मतत्त्व सुषुप्तिपद है उसका भाश्रय किया भोर महावल जो सुमेरु की नाई स्थिर अवस्था है उसको प्राप्त हुमा । फिर केवल भवेतन चिन्मात्र तुरीया निरानन्द मानन्दपद में जिसमें स्वरूप से भिन्न और आनन्द नहीं प्राप्त हुमा। वह असत् और सतरूप है। सर्वक्रिया से प्रतीत है, इस कारण असत् है और अनुभवरूप है इस कारण सत्यरूप है। ऐसे मशब्दपद को वह प्राप्त हुमा जो परमशुद्ध पावन और सर्वभाव के भीतर प्राप्त है और सर्वभाव शब्द से रहित है। जिसको शुन्यवादी-शून्य, ब्रह्मवादी-ब्रह्म, विज्ञानवादी विद्वान, सांख्य मतवाले पुरुष-श्वर, शेवी-शिव, वैष्णव-विष्णु, शाक्त-परमशक्ति, कालवादी-काल, भात्मवादी-मात्मा मोर माध्यमिक-माध्यम इत्यादिक जो शामवाले कहते हैं । सो एक परब्रह्म को ही कहते हैं, जो सर्वदा, सर्वकाल, सर्वपकार, सर्व में सर्वरूप है । ऐसे सर्वात्मा को वह मुनीश्वर प्राप्त इमा । जिस भानन्दसमुद्र के बल से सबको भानन्द होता है ऐसे भात्मतत्त्व अनुभवरूप अपने प्रानन्द को वह प्राप्त हुआ और वही रूप हो गया। जो अन्य भोर निरन्य, निरअन, सर्व, असर्व, अजर-अमर सबके मादि सकलक-निष्कलक - .