पृष्ठ:योगवाशिष्ठ भाषा प्रथम भाग.djvu/८२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

 

श्रीपरमात्मने नमः।
श्रीयोगवाशिष्ठ
द्वितीय मुमुक्षु प्रकरण प्रारम्भ।

——:•:——

वाल्मीकिजी बोले, हे साधो। ये वचन परमानन्दरूप हैं और कल्याण के कर्ता हैं इनमें सुनने की प्रीति तब उपजती है जब अनेक जन्म के बड़े पुण्य इकट्ठे होते हैं। जैसे कल्पवृक्ष के फल को बड़े पुण्य से पाते हैं वैसे ही जिसके बड़े पुण्यकर्म इकट्ठे होते हैं उसकी प्रीति इन वचनों के सुनने में होती है—अन्यथा नहीं होती। ये वचन परमबोध के कारण हैं। वैराग्यप्रकरण के एक सहस्र पाँचसौ श्लोक हैं। हे भारद्वाज! इस प्रकार जब नारदजी ने कहा तब विश्वामित्र बोले कि हे ज्ञानवानों में श्रेष्ठ, रामजी! जितना कुछ जानने योग्य था सो तुमने जाना है इससे अब तुम्हें जानना और नहीं रहा, पर उसमें विश्राम पाने के लिये कुछ मार्जन करना है। जैसे अशुद्ध आदर्श की मलिनता दूर करने से मुख स्पष्ट भासता है वैसे ही कुछ उपदेश की तुमको अपेक्षा है। हे रामजी! आपही के सदृश भगवान व्यासजी के पुत्र शुकदेवजी हुए हैं। वह भी बड़े बुद्धिमान थे, उन्होंने जो जानने योग्य था सो जाना था, पर विश्राम के निमित्त उनको भी अपेक्षा थी सो विश्राम को पाकर शान्त हुए थे। इतना सुन रामजी ने पूछा, हे भगवन्! शुकजी कैसे बुद्धिमान् और ज्ञानवान थे और कैसी विश्राम की अपेक्षा उनको थी और फिर कैसे उन्होंने विश्राम पाया सो कृपा करके कहो? विश्वामित्रजी बोले, हे रामजी! अञ्जन के पर्वत के समान और सूर्य के सदृश प्रकाशवान भगवान् व्यासजी स्वर्ण के सिंहासन पर राजा दशरथ के यहाँ बैठे थे। उनके पुत्र शुकजी सब शास्त्रों के वेत्ता थे। और सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानते थे। उन्होंने शान्ति और परमानन्दरूप आत्मा में विश्राम न पाया तब उनको विकल्प उठा कि जिसको मैंने जाना है सो न होगा। क्योंकि मुझको आनन्द नहीं भासता। यह संशय करके एक काल में व्यासजी जो सुमेरु पर्वत की कन्दरा में