पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१०८

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ईश्वरोपाख्याने दैवप्रतिपादनवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (९८९ ) भावना तीव्र होती है, तब वही आधिभौतिक होकार भासता है, तिस- विषे सत्यता दृढ हो जाती है, तिसकी सत्यताकार रागद्वेषसों क्षोभायमान होता है, जब काकतालीयवत् अकस्माते हृदयविषे विचार आनि उपजताहै, तब संकल्परूपी आवरण दूर हो जाता है, अरु अपने वास्तव स्वरूपको प्राप्त होता हैं, जैसे बालक अपने परछाईंविषे वैताल कल्पि- करि भयको पाता है, तैसे यह जीव अपने संकल्प कारकै अपही भय पाता है ॥ हे मुनीश्वर ! यह जेता कछु जगत् भासता है, सो सब संकल्पमात्र है, जैसा संकल्प इसके हृदयविषे दृढ होता है, तैसाही भासने लगता है, प्रत्यक्ष देख जो पुरुष कछु कार्य करता है, तब सो कर्तृत्वभाव तिसके हृदयविषे दृढ होता है, बहुरि कहता है, यह कार्य मैं न करौं, जब यही संकल्प दृढ होता है, तब उस कार्यते आपको अकर्ता जानता है, तैसे दृश्यकी भावनाकार जगत् सत्य दृढ हो गया है, जब दृश्यका संकल्प निवृत्त करता है, अरु आत्मभावनाविषे जुडता है तब जगद्धम निवृत्त हो जाता है, आत्माही भासता है ॥ हे मुनीश्वर ! परमार्थते कछु द्वैत हैही नहीं, सब संकल्परचना है, संक- ल्पकार रचा जो दृश्य सो संकल्पके अभावते अभाव हो जाता है जैसे मनोराज्य गंधर्वनगर मनकार रचित होता है, बहुरि संकल्पके अभाव हुएते अभाव होता है, तब केश कछु नहीं रहता ॥ हे मुनीश्वर ! यह जगत् संकल्पकी पुष्टताकारकै जीव दुःखका भागी होता है, जैसे स्वप्नविषे संकल्प करिकै दुःखी होता है, इस संकल्पमात्रकी इच्छा त्यागनेविषे क्या कृपणताहै, अरु स्वमविषे जो सुख भोगता है, सो सुख भी कछु वस्तु नहीं, भ्रममात्र है, तैसे यह सुख भ्रममात्र है । हे मुनीश्वर संकल्पविकल्पने इसको दीन किया है,जब संकल्पविकल्पका त्याग करता है, तब चित्त अचित्त हो जाता है, अरु परम ऊंच पदविषे विराजमान होता है, जिस पुरुषने विवेकरूपी वायुकरि संकल्परूपी मेघको दूर • किया है, सो परम निर्मलताको प्राप्त होता है जैसे शरत्कालका आकाश निर्मल होता है, तैसे संकल्पविकल्परूपी मलते रहित उज्वलभावको प्राप्त होता है, संकल्पके त्यागेते जो पाछे शेष रहता है, सो सत्तामात्र