पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/१८७

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(१०६८) योगवासिष्ठ । सिद्ध होती; जो उसकी भावना दृढ़ नहीं, अरु हृदय शुद्ध नहीं संकल्प भी तब सिद्ध होता है, जब हृदय शुद्ध होता हैं, कुछ हृदयवाला जिसकी चितवना करता है, दूर है सो भी सिद्ध होता है अरु जो निकट है सो ही सिद्ध होता है, अरु जब तू कहै संन्यासी तौ एक था, बहुत शरीर कैसे चेतन हुए तिसका उत्तर सुन, जो कोई योगीश्वर है, अरु योगिनी देवियाँ हैं, तिनका संकल्प सत्य है, जैसा संकल्प फुरता है, तैसाही होता है, ऐसे सत्संकल्पवाले अनेक मैं आगे देखे हैं, एक सहस्रवाहु अर्जुन राजा था, सो घरविषे बैठा हुआ शिरपर छत्र पड़ा झूलता है, अरु चमर पड़ा होता है, तिसके मनविषे संकल्प हुआ कि, मैं मेघ होकर बरसों तिस संकल्प करणेकार एक शरीर तौ राजाका रहा अरु एक शरीर मेध होकरि बरसने लगा, अरु विष्णु भगवान् एक शरीरकारकै क्षीरसमुद्र- विषे शयन करता हैं, अरु प्रजाकी रक्षानिमित्त अपर शरीर भी धारि- लेता है, अरु यज्ञ देवियां अपने स्थानोंविषे होती हैं, बडे ऐश्वर्यकार देशोंविषे भी विचरती हैं, अरु इंद्र भी एक शरीरकार स्वर्गविषे रहता हैं, अरु अपर शरीर कारकै जगविषे भी बैठा रहता है, इत्यादिक जो योगी- श्वर हैं, तिनका जैसा संकल्प होता है, तैसीही सिद्धि होती है, अरु जो अज्ञानी भूख हैं, तिनका मन बडे भ्रमको प्राप्त होता है, बडे मोहको प्राप्त होते हैं, मोहते आगे मोहकरि नीच गतिको प्राप्त होते हैं, जैसे बडे पर्वतके ऊपरते बटा गिरता है, सो नीचे स्थानको प्राप्त होता है, तैसे मूर्ख आत्मपदते गिरनेकरिकै संसाररूपी टोयेविषे पड़ते हैं, अरु बडे दुःखको प्राप्त होते हैं। राम उवाच ॥ हे भगवन् ! तुमने कहा जो संसार स्वप्नमात्र है, सो मैंने जाना है, जो अनंत मोहरूपी विषमता है, अरु आत्मचेतनरूप आनंदके प्रमाकरिके आपको जड दुःखी जानता है, बडा आश्चर्य हैं, अरु हे भगवन् । यह जो तुमने संन्यासी कहा, तिस जैसा कोऊ अपर भी है, अथवा नहीं सो कहौ ॥ वसिष्ठ उवाच॥ हेरामजी ! संसाररूपी मढी है, तिसविषे मैं रात्रिके समय समाधि कारकै देखौंगा, अरु दिनको तेरे ताई जैसे होवैगा तैसे कहौंगा । वाल्मीकि- रुवाच ॥ हे राजा ! ऐसे जब वसिष्ठजीने कहा, तब मध्याह्नका समय