पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२१४

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अग्निसोमविचारवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१९९५) तिसको पुरुष भोजन करते हैं, तब अंतर कुंडलनी जो हैं, पुर्यष्टकासाथ मिली हुई जीवकला अरु प्राणोंकी समष्टिता, सो उदानपवन ऊर्ध्वमुख होफ़रती है, अरु अपानपवन तिसते अधःको फुरता है, उदान अरु अपानका आपसविषे विरोध है, तिनके क्षोभते अग्नि उठता है, सो हृद- यकसलविषे आनि स्थित होता है, तब बहिर अश्किा पक्का भोजन हृद- यकी अग्निते बहुरि पक्व होता हैं, अरु सर्व नाडी अपने अपने भाग रसको ले जाते हैं, तब वीर्यवाली नाड़ी वीर्यकारकै राखत है, अरु रुधि- रवाली नाड़ी रुधिरकार राखत है, अरु जब राग अरु द्वेषकारकै चित्त कुंडलनी शक्तिविष क्षोभ होता है, तब नाड़ी अपने स्थानोंको छोड़ देती हैं, अन्न भी अंतर पक्व नहीं होता, तिस कच्चे रसकार रोग उठते हैं, जैसे राजाको क्षोभ होता है, तब सैन्यको भी क्षोभ होता है, अरु जब राजाको शौति होती है, तब सैन्यको भी शांति होती है, तैसेही जब मनविषे क्षोभ होता है, तब रोग होते हैं, अरु जब मनविपे शांति होती है, तब नाड़ी अपने अपने स्थानों विषे स्थित होते हैं, रोग कोई नहीं होता है ताते हे रामजी ! आधि व्याधि तब होते हैं, जब पुरुषका चित्त निर्वासन नहीं होता, जब चित्त शाँत होता है, तब रोग कोई नहीं रहता, ताते निर्वासनापदविषे स्थित हो, तब रामजीने कहा ॥ हे भगवन् ! पीछे तुमने कहा, कि मंत्रोंकार भी रोग निवृत्त होता है, सो कैसे निवृत्त होता है यह कहौ १ तब वसिष्ठजीने कहा ।। हे रामजी । प्रथम पुरुषको श्रद्धा होती है, कि इस मंत्रकारि रोग निवृत्त होवैगा, अरु पुण्यक्रिया जो दान आदिक हैं, अरु संतजनकी संगति होत है, अरु ‘य र ल व आदिक जो अक्षर हैं, इनके जाप करकै अरु जेते कछु जाप अरु मंत्र हैं, सो इन अक्षरोंकार सिद्ध होते हैं, जब इनको भावना सहित जाप करता है तब व्याधि रोग निवृत्त हो जाता है, अरु योगे- श्वरका क्रम जो है, अणु स्थूल सो श्रवण कर, जब वह प्राण अरु अपान कुंडलिनी शक्तिविषे स्थित होते हैं, अरु इनको वश कारकै योगी गंभीर होते हैं, जैसे मसक विषे पवन होवे, इसी प्रकार पवनको स्थित कारकै कुंडलिनी सुषुम्नाविषे प्रवेश करती है, तब ब्रह्मरंध्रविषे जाय स्थित होती