पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३१

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('१११२) योगवासिष्ठ । बालक हैं, तिसका नामभी कुंभ राखा, सो कुंभ सर्वज्ञमैं हौं, नारदजीका पुत्र अरु ब्रह्माजीका पौत्र हौं, सरस्वती मेरी माता है, गायत्री मेरी मौसी है, मेरे ताई सर्व ज्ञानहै, तब राजाने कहा, हे देवपुत्र ! तुम सर्वज्ञ दृष्टि आते हौ तुम्हारे वचनोंकार मैं जानता हौं, तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् । जो तुम पूँछा सो मैंने कहा, अब कहु कि, तू कौन है, अरु यहाँ क्या कर्म करता है, अरु यहाँ किसनिमित्त आया है, तब राजाने कहा, हे देवपुत्र । आज मेरे बडे भाग्य उदय हुए हैं, जो तुम्हारा दर्शनभयाहै। तुम्हारा दर्शन बड़े भाग्यसों प्राप्त होता है, यज्ञ अरु तपते तुम्हारा दर्शन श्रेष्ठ है, तब देवपुत्रने कहा ॥ हे राजन् ! अपना वृत्तांत कहुं कि, तू कौन है ॥ राजाने कहा, हे देवपुत्र ! मैं राजा हौं, अरु शिखरध्वज मेरा नाम है, अरु राज्यका मैंने त्याग किया है, जो मेरे ताई संसार दुःख दायक भासा, तिसके भयकार त्याग किया, वारंवार जन्म अरु मृत्यु संसारविषे दृष्ट आता है, ताते राज्यका त्यागकार यहाँ तप करनेलगा हौं, तुम त्रिकालज्ञ हौ, अरु जानते हौ, तथापि तुम्हारे पूछनेकार कछु कहा चहिये, मैं त्रिकाल संध्या करता हौं, अरु जाप करता हौं, तो भी मेरे ताईं शाँति नहीं प्राप्त भई, नाते जिसकार मेरे दुःख निवृत्त होवें,सो उपाय कहौ ॥ हे देवपुत्र ! मैं तीर्थं बहुत फिरा हौं, बहुंत देश स्थान फिरा हौं, अब इस वनविषे आनि बैठा हौं तौ भी मेरे ताईं शांति नहीं प्राप्त भई, ताते जिसकार मेरे दुःख निवृत्त होवें अरु शांति प्राप्त होवै सो कहौ, तब देवपुत्रने कहा, हे राजर्षि । तैने राज्यका त्याग किया, अरु बहुरि तपरूपी टोयेविषे आय पडा है, यह तैंने क्या कियाहै, जैसे पृथ्वीका क्रम बार पृथ्वीविषे रहता है, तैसे तू एक टोयेको त्यागिकार बहुरि दूसरे टोयेविषे आइ पडा है, अरु जिसनिमित्त राज्यत्याग किया, तिसको न जानत भया, अरु यहाँ आयकार एकलाठी अरु मृगछाला अरु फूल राखे, इनकार तौ शांति नहीं प्राप्त होती ताते अपने स्वरूपविषे जाग जबस्वरूपविषे जागैगा,तब दुःख सब निवृत्त होवेंगे,इसीपरएकसमय ब्रह्माजीसों मैंने प्रश्न किया था कि, हे पितामहजी ! कर्म श्रेष्ठ है, अथवा ज्ञान श्रेष्ठ है, दोनोंविषे क्या श्रेष्ठ है, जो मुझको कर्तव्य है, सो कहौ,