पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३७

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(१११८) योगवासिष्ठ । मैं तौ कछु नहीं समझा, ताते खोलिकरितुमहीं कहौ, तब देवपुत्रने कहा। हे राजन् तू शास्त्रके अर्थविष तौ बहुत चतुर है, सब अर्थका ज्ञाता है, परंतु स्वरूपविषे तेरे ताईं स्थित नहीं, जैसे आकाशविषे पर्वत नहीं ठहरता, ताते जो वचन मैं कहता हौं, सो बुद्धिकार ग्रहण करु, कि, हस्ती क्या है, अरु चिंतामणि क्या है, प्रथम जो सर्वं त्याग तैने कियाथा, सो चिंतामणि थी, तिसके निकट तू प्राप्त होकर सुखी भया, जी तिसको तू अपने पास राखता, तौ सब दुःख निवृत्त हो जाते सोमणिको तैने निरादुर किया कि तिसको त्यागा, अरु काचकी मणि तप क्रियाको प्राप्त भया, सो दरिद्रही रहा ॥ हे राजन् ! सर्वत्यागरूपी चिंतामणि थी, अरु यह क्रियाको आरंभ काचकी मणि है, सो तैने ग्रहण करी, तिसते दारि इकी निवृत्ति नहीं होती, दुःखही रहता है, त्यागरूपी चिंतामणिकावाहन था, अरु क्रियारंभ तिसका अनादर है । हे राजन् ! सर्व त्याग तैने नहीं किया, किया भी था परंतु कछुक रहता था, तिसके रहनेते बहुरि विस्तारको प्राप्त भया, जैसे बड़ा बादल वायुकरि क्षीण होता हैं, अरु सूक्ष्म रहि जाता है, अरु पवनके रहेते बहुरि विस्तारको पाता है। अरु सूर्यको छिपाय लेता है, सो बादल क्या है, अरु सूर्य क्या है,अरु थोडा रहना क्या हैं सो सुन, स्त्रियाँ अरु कुटुम्बते आदि त्याग किया अरु अहंकार इनविषे करना सो बड़ा बादल है, अरु वैराग्यरूपी पवनकार राज्य अरु कुटुम्बका अहंकाररूपी बड़ा बादल निवृत्त हुआ अरु देहादिकविषे जो अहंकार रहा सो सूक्ष्म बादल रहा, सो बार वृद्ध होगया, जो अनात्म अभिमान कारकै क्रियाका आरंभ किया, इसकारकै आत्मारूपी सूर्य जो अपना आप है, सो अहंकाररूपी बादलकरि आच्छाद्या गया, ज्ञानरूपी चिंतामणि अज्ञानरूपी काचकी मणि करिकै जैसे छपन भई; जब ज्ञान करिकै आत्माको जानैगा, तब आत्मा प्रकाशैगा, अन्यथा न भासैगा, जैसे कोऊ पुरुष घोडेपर चढिकै दौड़ता है। तिसकी वृत्तिघोड़ेविषे होती है, तैसे जिस पुरुषका आत्माविषे दृढ निश्च य होता है, तिसको आत्माते भिन्न कछु नहीं भासता है ॥ हे राजन् । - आत्माका पाना सुगम है, जो सुखनही पाता हैं, अरु बडे आनंदकी