पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२३८

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हस्तिवृत्तान्तवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (१११९) प्राप्ति होती है, अरु तपादिक क्रिया जो हैं, तिसको कष्टकर सिद्धि होती है अरु स्वरूपसुखकी प्राप्ति नहीं होती। हे राजन् ! मैं जानता हौं, तू मूर्ख नहीं शास्त्रों का ज्ञाता है, अरु बहुत चतुर है, तथापि तेरे ताईं स्वरूपविषे स्थिति नहीं, जैसे आकाशविषे पत्थर नहीं ठहरता, ताते मैं उपदेश करता हौं, तिसको ग्रहण करु, तेरे दुःख निवृत्त हो जावेंगे, अरु पाछे जो राज्यका त्याग आया हैं, जैसे ब्रह्माकी रात्रिविषे संसारका अभाव हो जाता है, तैसे त्याग किया था । हे राजन् ! यह सर्वते श्रेष्ठ ज्ञान कहा है, अरु कहता हौं, तैनेजो तपक्रियाका आरंभ किया है, अरु तिसका जो फल जाना है, तिस ज्ञानते श्रेष्ठ ज्ञान कहा है, अरु कहता हौं जो तेरा भ्रम निवृत्त हो जावेगा । हे राजन् ! चिंतामणिका तात्पर्य संपूर्ण तेरे ताईं कहा अब हस्तीका वृत्तांत जो आश्चर्यरूप है सो श्रवण करु, जिसके समुझनेकार अज्ञान निवृत्त हो जावैगा, मंदराचलका हस्ती सो तू है, अरु मंहावत तेरे ताई अज्ञानता है, इस अज्ञानरूपी महावतने तेरेको बाँधा है, अरु हस्ती जो संकलसे बांधा था, सो आशारूपी संकलोंकार बांधा था, अरु संक्कलते भी तु अधिक बाधा हैं, कि संकल तौ घटते भी हैं, अरु अशोरूपी फाँसी घटती नहीं, दिन दिन बढती जाती है । हे राजन् ! आशारूपी फाँसीकारकै तू महादुःखी है, अरु जो हस्तीके बड़े दंत थे, जिसकरि संकलोंको तोड़ा था, सो तेरे देत विवेक अरु वैराग्य हैं, तैने विचार किया, मैं बलकारकै छूटौं, अरु राज्य कुटुम्ब पृथ्वीका त्याग करआया अरु फाँसीको काटा, तब आशारूपी रस्से काटे, अज्ञानरूपी महावत भयको प्राप्त भया, अरु तेरे चरणोंके तले आयं पड़ा जैसे वृक्षके ऊपर वैताल रहता है, अरु कोङ वृक्षको काटने आता है, तब वैताल भयको प्राप्त होता है, तैसेही तैने वैराग्य अझ विवेकरूपी दंतनकारकै आशाके फांस काटे, तब अज्ञानरूपी महावत गिरा, अरु नैंने एक घाव लगाया, परंतु मारि न डारा, तब महावत तुझते भाग गया जैसे वृक्षपर वैताल रहता है, वृक्षको कोङ काटने लगता है, तब वैताल भागि जाता है । हे राजन् । तैसे