पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/२९

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योगवासिष्ठ।

असक्त होजाता है, तृष्णा बढती जाती है, अंतरते पड़ा जलता है, बहुरि मृत्युरूपी सिंह जरारूपी हरिणको भोजन करि लेता है, इसप्रकार उपजता अरु मरता है आशारूपी रसडीसे बांधा हुआ घटीयंत्रकी नाईं पडा भटकता है, शांतिको कदाचित् नहीं प्राप्त होता॥ हे रामजी! ब्रह्मांडरूपी एक वृक्ष है, अरु जीवरूपी तिसको पत्र लगे हैं, सो कर्मरूपी वायुकरि हलते हैं अरु अज्ञानरूपी तिसविषे जडता है, अरु चित्तरूपी ऊंचा वृक्ष है, तिसऊपर लोभादिक घूघू आय बैठते हैं अरु जगत‍्‍रूपी ताल है, तिसविषे शरीररूपी कमल हैं, तिनविषे जीवरूपी भँवरे आय बैठते हैं, अरु कालरूपी हस्ती आयकरि तिसको भोजनकरि जाता है॥ हे रामजी! यत्नरूपी जीर्ण पक्षी है आशारूपी फांसीसे बांधे हुए वासनारूपी शिक्षाविषे पड़े रहे हैं, रागद्वेषरूपी अग्निविषे पडेहुए कालरूपी पुरुषके मुखमें प्रवेश करतेहैं, अरु जनरूपी पक्षी उड़ते फिरते हैं, सो कोऊ दिन तिसकोजब कालरूपीव्याध जाल पसारैगा, तब फँसाय लेवैगा॥ हे रामजी! संसाररूपी तालहै,अरुजीवरूपी तिसविषेमच्छियांहै, कालरूपी बगला तिनको भोजन पड़ा करता है, अरु कालरूपी कुंभार है, जनरूपी मृत्तिकाके बासन करता है, बहुरि शीघ्रही फुटि जाते हैं, अरु जीवरूपी नदी है, कर्मरूपी तरंगको पसारती है, सो कालरूपी वडवाग्निमें जाइ पडती है, अरु जगद्रूपी हस्ती है जीवरूपी मोती तिसके मस्तकविषे है, तिस हस्तीको कालरूपी सिंह भोजन करि जाता है, सो कालरूपी भक्षक है, जिसने ब्रह्माहूको भोजन किया है, अरु करता है, तृप्त नहीं होता जैसे घृतकी आहुतिकरि अग्नि तृप्त नहीं होता, तैसे काल जीवके भोजनकरि तृप्त कदाचित् नहीं होता॥ हे रामजी! एक निमेषविषे जगत् उपजता है, अरु उन्मेषविषे लीन हो जाता है, सबके अभाव हुए जो शेष रहता है, सो रुद्र है, बहुरि निवृत्त हो जाता है, सबके पाछे एक परमतत्त्व ब्रह्मसत्ता रहती है॥ हे रामजी! जेता कछु जगत् है, सो अज्ञान करिकै भासता है, जन्म मरण बालक यौवन वृद्धादिक विकार अज्ञानकरि भासते हैं, अज्ञानके नष्ट हुए सब नष्ट हो जाते हैं, अरु जबलग आत्मविचार नहीं