पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१३

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(११९४ ) योगवासिष्ठ । परमेश्वर नहीं पायाजाता, अरु गुरुकार भी नहीं पायजाता, जबलग अपनी बुद्धि निर्मल न होवे, जब अपनी बुद्धि सत्पदविषे निर्मल होवे,तबअपने आपकार देखता है, सो बुद्धि कैसे निर्मल होतीहै, जब संसारकी सत्यता हृद्यते दूर होवे, अरु आत्माका अभ्यास होवै, तब बुद्धि निर्मल होती है । हे राजन! सर्व भाव अभावरूपजो देहादिक पदार्थ हैं, सो असर हैं, केवल भ्रममात्र हैं, तिनकी आस्थाका त्याग करु, जैसेकोङ मार्गमें चलता है, अरु मार्गविषे अनेक मिलते हैं, परंतु तिनविषे रागद्वेष कछु नहीं होता, तैसे देह इंद्रियांसाथ स्नेहते रहित आत्मतत्त्व सदा अपने आप विषे स्थित हैं, तिसीविषे देहादिक इंद्रजालकी नई मिथ्या हैं, तिनकी भावना दूरते त्यागिकार नित्य आत्मा शीतल चित्तविषे स्थित होहु ॥ हे राजन् ! अपना मित्र अपही है, अरु शत्रु भी अपना आपही है, काहेते कि, आत्माविषे अपरकी ठौर नहीं, आत्माविषे आत्माका भाव है,अपर द्वैत कछु नहीं, इस कारणते अपना आपही शत्रु है, आपही अपना मित्र हैं, जो दृश्य पदार्थका अनात्मधर्मविषयोंकी ओरसों बैंचिकार चित्तको अपने आपविषे स्थित करता है, सो अपना आपही मित्रहै, अरु जो अनात्मधर्मविषे पदार्थकी ओर चित्तको लगाता है, सो अपना आपही शल है, अरु वास्तवते जेता कछु दृश्यजाल है सो भी आत्मारूप है, आत्माते भिन्न कछु वस्तु नहीं, जैसे समुद्रजलते इतर कछु वस्तु नहीं, जल ही जल है, तैसे आत्माते इतर जगत् कछु वस्तु नहीं,सबविषे अनुस्यूत एक आत्मसत्ताही स्थित है, जैसे अनेक घटके जलविषे एकही सूर्यको प्रकाश प्रतिबिंब होता है, तैसे अनेक देहविषे एकही आत्मा व्यापि रहा है, सो न अस्त होता है न उदय होता है, सदा एकरस अविनाशी पुरुष ज्योंका त्यों स्थित हैं, तिसविषे अहंभावना कारकै संसार भासता है, जैसे सीपीविषे रूपेकी बुद्धि होती है, तैसे अत्माविषे अहेबुद्धि संसारका कारण है, इस बुद्धिकरि सर्व दुःखका भागी होता है, जैसे वर्षाकालकर सब नदियाँ समुद्रविषे आय प्रवेश करती हैं, तैसे अनात्म अभिमान करिकै सब अपदा अनि प्राप्त होती हैं, वास्तवते चिन्मात्र अरु जीवविषेरंचकभी भेद नहीं, एकही रूप है, ऐसीजो बुद्धि है, सो बंधनते मुक्तिका कारण है,