पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१४

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राजाइक्ष्वाकुप्रत्यक्षोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. (११९५) आत्मा सर्वविषे अनुस्यूत व्यापा है, जैसे सूर्यकाप्रकाश सर्वठौरविषे होता है, परंतु जहाँ शुद्ध जल है, तहां भासता हैं, तैसे आत्मा सब ठौर पूर्ण है, परंतु शुद्ध बुद्धिविषे भासता है, जैसे तरंग बुद्बुदेविषे जलही व्याप रहा है, तैसे आत्मा अविनाशी दृश्य कलनाते रहित सर्वत्र व्यापा है, जैसे स्वर्णविर्षे भूषण नहीं, तैसे आत्माविषे जगत्का अभाव है। हे राजन्! भह संसार आत्माविषे नहीं, केवल आत्माही है, जो एक वस्तु पात्रकी नाई होती है, तिसविषे दूसरी वस्तु होती है, आत्मा तो अद्वैत है, दूसरी वस्तु संसार कहां होवे, अरु स्वर्ण विषे भूषण जैसे चित्तकार कल्पित हैं, वास्तव कछु नहीं. तैसे आत्माविषे संसार अज्ञानकारै कल्पित है, वास्तव कछु नहीं, केवल चिदाकाश है, जैसे नदियां अरु समुद्र नाममात्र हैं, सो जलही है, वैसे केवल चिदाकाशविषेष विश्वनाममात्र है, अरु जेते आकार भासते हैं, तिनका काल भक्षण करता है, जैसे नदियोंको समुद्र भक्षण करिकै अधाता नहीं, तैसे पदार्थ समूहको काले भक्षण करता अचाता नहीं ॥ हेराजन् ! ऐसे पदार्थविषे अभिलाषा करनी क्या है, कई कोटि सृष्टि तपती होती हैं, तिनको काल भक्षण अवलग करता है, कोऊ पदार्थ कालते मुक्त नहीं होता, जैसे समुद्रविषे तरंग बुद्बुदे कई उपजते हैं, अरु नष्ट हो जाते हैं, ताते तू कालते अतीत पदकी भावना करु, जो कालको भी भक्षण करे, कैसे भावना करिये अरु कैसे भक्षण करिये सो श्रवण करु, जैसे मंद्रचलने अगस्त्यमुनिके आनेकी भावना फरी है, तैसे तू अपने स्वरूपकी भावना केरु, तब कालको भक्षण करेगा. जैसे अगस्त्यमुनिने समुद्रुका भेक्षण किया था, तैसे आत्मारूपी अगस्त्य कालरूपी समुद्रको भक्षण करेगा । हे राजन् ! जन्ममरणादिक जो विकार हैं, सो भ्रमकरिके हैं,आत्माके प्रमादकर भासते हैं, जब आत्माको निश्चयकार जानैगा, तब विकार कोऊन भासैगा काहेते कि, अज्ञानकारि रचे हैं, आकाशविपे कोऊ नहीं, जैसे जेवरीविषे भ्रमसंयुक्त सर्पभासताहै। • सो तबलग है, जबलग जेवरीको नहीं जाना, जब जेवरीको जानै तब सर्पभ्रम निवृत्त होजाताहै, तैसे जन्म मरणआदिक विकार आत्माविषे तेलग भासते हैं, जबलग अत्माको नहीं जाना जब आत्माको जानैगा