पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३१९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

( १२००) योगवासिष्ठ । दुःखदायी है, ताते आत्माकी भावना करु, जो तेरे सर्व दुःख नष्ट हो जावें ॥ हे राजन् ! तू सर्वदा आनंदरूप है, अरु अद्वैत है, तेरेविषे कल्पना कोऊ नहीं, तू आत्मस्वरूप है अरु आत्मा घविकारते रहित है, विकार मिथ्या देहके हैं, आत्मा शुद्ध है, आत्माके प्रमाकारकै विकार भासते हैं, जब तू आत्माको जानैगा, तब विकार कोऊ न दृष्टआवैगा, काहेते कि, आत्मा अद्वैत हैं । राजोवाच ॥ हे भगवन् ! तुम कहते हो आत्मा अद्वैत है, जो इसप्रकार है तौ पर्वत आदिक विश्व कैसे भान होता है, पत्थररूप महाबड़े आकार बनिकै कहाँते उपजे हैं, इसका रूप क्या है, सो कृपा कारकै कहौ ॥ सुनिरुवाच ॥ हे राजन् ! आत्माविषे संसार कोऊ नहीं, सदा शतिरूप है, अरु निराकार है, तिसविषे स्पद निस्पंद दोनों शक्ति हैं, जब निस्पंदशक्ति होती है, तब केवल अद्वैत भासता है, जब स्पंदशक्ति फुरती है, तब जगत्के नानाप्रकारके आकार भासते हैं, वास्तवते आत्माही है, इतर कछु नहीं, जैसे समुद्भविषे तरंग कछु अपर नहीं, वहीरूप हैं, पवनके संयोगते फुरते हैं, तौ भिन्न भिन्न हृष्ट आते हैं, तैसे फुरणशक्तिकार अहंकार -भिन्न भिन्न भासते हैं, वास्तवते आत्मस्वरूप हैं, इत कछु नहीं, जैसे वटका बीज होता है, अरु तिसविषे पत्र टास फूल फल अनेक दृष्ट आते हैं, तैसे आत्मसत्ताके नानाप्रकारके आकार धारे यद्यपि दृष्ट आते हैं, तो भी बना कछु नहीं, केवल आत्मा अद्वैत ज्योंका त्यों स्थित है, अरु सूक्ष्मते भी अतिसूक्ष्म है, अरु पर्वत आदिक जो विश्व भासता है,सो आत्माका चमत्कार है,जैसे स्वप्नविषे पर्वत वृक्षादिक नानाप्रकारकेआकारभान होते हैं, तो भी अनुभवरूप हैं, तिसते इतर कछु नहीं, तैसे जाग्रत् विश्व भी आत्मा अनुभवरूप है, आत्माते इतर कछु नहीं॥ इक्ष्वाकुरुवाच॥ हे भगवन् ! जो आत्मा सूक्ष्म है, तौ पर्वतादिक स्थूल असरूप सत् होकार कैसे भासता है, सो कृपा करिकै कहौ । ॥मुनिरुउवाच॥ हे राजन् ! आत्मा अनंतशक्ति है, सो शक्ति आत्माते भिन्न नहीं, वहीरूप हैं, जैसे सूयकी किरणें सूर्यते भिन्न नहीं, तैसे आत्माकी शक्ति आत्माते भिन्न नहीं, जैसे पवनविषे' दो शक्ति हैं, स्पंद अरु निस्पंद सो वहीरूप हैं, स्पंदशक्तिकार प्रगट भासता है, अरु