पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/३२८

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परमार्थोपदेशवर्णन-निर्वाणप्रकरण ६. ( १.२०९) मत करु, अहंकारते रहित जो तेरा स्वरूप हैं, तिसविषे स्थित होहु, जब अहंकार नष्ट होवैगा, तब आपको जन्म मरण विकारोंते रहित आत्मा जानैगा कि, मैं निरहंकार हौं, अरु ब्रह्म हौं, चिन्मात्र हौं, ऐसे अहंभावते रहित होना, अपना होना भी न रहेगा, केवल चिन्मात्र रहूँगा, आनंदरूप होवैगा, अरु शतिरूप रागद्वेषके शोभते रहित होवैगा, जब ऐसा आपको जाना, तब शोक किसका करेगा। हे राजन् ! इस दृश्यको त्यागिकार अपने स्वरूपविषे स्थित हो, अरु इस मेरे उपदेशको विचार कि, मैं सत्य कहता हौं, अथवा असत्य कहता हौं, अरु विचारते जो संसार सत्य होवै, तौ संसारकी भावना करु, अरु जो आत्मा सत्य होवे, तो अत्माकी भावना करु ।। हे राजन्! तू सम्यक् हो, सेतुको सत् जान, अरु असत्को असत् जान, अरु जो असम्यक्दर्शी है, सो सत्को असत्य मानता है, अरु असत्यको सत्य मानता है, असत् वस्तु तौ स्थिर नहीं रहती, ऐसे न जाननेकार अज्ञानी दुःख पावता है, जैसे कोऊ पुरुष कुटीको रचिकार चितवने लगा कि, आकाशकी मैं रक्षा करी है, जब कुटी नष्ट भई, तब शोक करता है कि,आकाशनष्ट होगया, काहेते कि, आकाशको कुटकि आश्रयजानता था,तैसे अज्ञानी पुरुष आत्माको देहके आश्रय जानकारी देहके नष्ट हुए आत्माका नाश मानता है, अरु दुखी होता है, जैसे स्वर्णविषे भूषण कल्पित हैं, सो भूषणोंके नष्ट हुए मूर्ख स्वर्णको नष्ट मानता है, तैसे अज्ञानी देहके नष्टहुए, आपको नष्ट जानताहै,अरुजिसको स्वर्णका ज्ञान है, सो भूषणोंके नाशते भी स्वणको देखता है, अरु भूषण संज्ञा कल्पित जानता है, तैसे जो ज्ञानवान है, सो आत्माको अविनाशी जानता है अरु देह इंद्रियोंको असत् जानता है । हे राजन् ! तू देह इंद्रियोंके अभिमानते रहित हो, जब अभिमानते रहित इंद्रियोंकी चेष्टा करेगा, तब शुभ अशुभ क्रिया बाँधिन सकैगी, अरु जो अभिमान सहित करेगा, तब शुभ अशुभ फलको भोगैगा ॥ हे राजन् ! जो मूर्ख अज्ञानी है, सो ऐसी क्रियाका आरंभ करता हैं, जिसका कृल्पपर्यंत नाश न होवै, अरु देह इंद्रियोंके अभिमानका प्रतिबिंब आपविषे मानते हैं, मैं कर्ता हौं, भोक्ता हौं, ऐसे माननेकारे अनेक जन्म पाते हैं, तिनके ।