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योगवासिष्ठ।

अकिंचन किंचनरूप है, तिस चेतन आत्माकी हम उपासना करते हैं, चेतनरूप अमृत है, जो क्षीरसमुद्रते निकला है, चन्द्रमाके मंडलविषे रहता है, ऐसा जो स्वतःसिद्ध अमृत है, जिसको पाइकरि कदाचित मृतक न होवै तिस चेतन अमृतकी हम उपासना करते हैं। जो अखंड प्रकाश है अरु सर्व भूतको सुंदर करता है, तिस चिदात्माको हम उपासते हैं. शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध जिसकरि प्रकाशते हैं, अरु आप इनते रहित है, तिस चेतन आत्माकी हम उपासना करते हैं, सर्व में हौं, अरु सर्वमै नहीं,और भी कोई नहीं, इसप्रकार विदित जानकरि अपनेअद्वैत रूपविषे विगतज्वर होकार स्थित होते हैं, यही निश्चय ज्ञानवानका है॥

इति श्रीयोगवासिष्ठे निर्वाणप्रकरणे जीवन्मुक्तिनिश्चयोपदेश वर्णनं नाम दशमः सर्गः॥१०॥



एकादशः सर्गः ११.

जीवन्मुक्तिनिश्चयवर्णनम्।

वसिष्ठ उवाच॥ हे रामजी! जो निष्पाप पुरुष हैं, तिनको यही निश्चय रहता है, जो सत्यरूप आत्मतत्त्व है, यह पूर्ण बोधवान‍्का निश्चय है, तिनको न किसीविषे राग होता है, न द्वेष होता है, जीना मरणा उसको सुखदुःख नहीं देता, एक समान रहता है, सो विष्णु नारायणका अंग है॥ अर्थ यह कि, अभेद है, सदा अचल है, जैसे सुमेरु पर्वत वायुकरि नहीं चलायमान होता तैसे वह दुःखकरि नहीं चलायमान होता, ऐसे जो ज्ञानवान पुरुष हैं, सो वनविषे विचरते हैं, नगर द्वीप नानाप्रकारके स्थानविषे फिरते हैं, परंतु दुःखको नहीं प्राप्त होते, स्वर्गविषे फूलके वन बगीचेविषे फिरते हैं, कई पर्वतकी कंदराविषे रहते हैं, कई राज्य करते हैं, शत्रुको मारिकरि शिरके उपर झुलावते हैं, कई श्रुति स्मृति अनुसार कर्म करते हैं, कई भोग भोगते हैं, कई विरक्त होकार स्थित हैं, दानयज्ञादिक कर्म करते हैं, कई स्त्रीकेसाथ लीला करते हैं, कहूँ गीत सुनते हैं, कहूँ नंदनवनविषे गन्धर्व गायन