पृष्ठ:योगवासिष्ठ भाषा (दूसरा भाग).pdf/४३३

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

| ( १३१४) यौगवासिष्ठ.। है,जब अहं हुआ तब मम भी होता है, सो अहंमम भी नाम संसारका है, जब अहं मम मिटि गया, तब जगत्का अभाव होता है, अहँके होते। दृश्य भासती है, अरु दृश्यविषे अहँ होती है, ताते संवेदनको त्यागिकार निर्वाणपदको प्राप्त होहु ॥ शुशुण्डि उवाच ॥ हे वसिष्ठजी ! इसप्रकार जब मैं विद्याधरको उपदेश किया, तब समाधिविचे स्थित हुआ, अरु परम निर्वाणपदको प्राप्त भया, जैसे दीपक निर्वाण हो जाता है, तैसे उसका चित्त क्षोभते रहित शांतिको प्राप्त भया ॥ हे ब्राह्मण ! उसका हृदय शुद्ध था, मेरे वचनोंने शीघ्रही उसके हृद्यविषे प्रवेश किया, जब समाधिस्थित भया, तब मैं उसको वारंवार जगाय रहा परंतु न जागा, जैसे कोङ जलता जलता शीतल समुद्रविषे जाय बैठे, अरु उससे कहिये तू निकस तौ नहीं निकसता, तैसे संसारतापकार जो जलता था, सो आत्मसमुद्रुको प्राप्त हुआ, तब अज्ञानरूपी संसारके प्रवाहको नहीं देखता ॥ हे वसिष्ठजी ! जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है, तिसको थोड़े वचन भी बहुत हो लगते हैं, जैसे तेलकी एक बूंद जलविषे पाई बडे विस्तारको पाती है, तैसे जिसका अंतःकरण शुद्ध होता है, तिसको थोड़ा वचन भी बहुत होकर लगता है, अरु जिसका अंतःकरण मलीन होता है, तिसको वचन नहीं लगता, जैसे आरसीऊपर मोती नहीं ठहरता; तैसे गुरु शास्त्रके वचन उसको नहीं लगते, जब विषयते वैराग्य उपजै तब जानिये कि, हृदय शुद्ध हुआ है ॥ हे वसिष्ठजी ! जब मैं विद्याधरको उपदेश किया, तब वह शीघ्रही आत्मपदको प्राप्त भयो, काहेते कि, उसका चित्त निर्मलथा । हे मुनीश्वर ! जो तुमने मुझते पूँछा था सो कहा,' जो ज्ञानते रहित चिरकाल जीता देखा ॥ वसिष्ठ उवाच ॥ हे रामजी ! ऐसे मैं काकभुशुण्डिसे पूछा था, सो मुझसों कहा, अरु कहकरे तूष्णीं होगया, जैसे मेघ वर्षा कार तूष्णीं होवे, तैसे वह तूष्णीं भया, अरु मैं नमस्कार कारकै उठ आकशमार्गते अपने घर आया ॥ हे रामजी ! मेरे अरु कागभुशुण्डिके संवादको अब एकादश चौकडी युग बीते हैं ॥ हे रामजी ! कालका नियम नहीं, जो थोरे कालकार ज्ञान उपजता है, अथवा बहुत काल